भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 76

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय -1
अर्जुन की दुविधा और विषाद

                          
44.उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेअनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥

हे जनार्दन (कृष्ण), हम यह सुनते आए हैं कि जिन लोगों के पारिवारिक धर्म नष्ट हो जाते हैं, उन्हें अवश्य ही नरक में रहना पड़ता है।

 45.अहो बत महत्पापं कर्तु व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥

अरे, हम तो यह बड़ा भारी पाप करने लगे हैं, जो राज्य का आनन्द पाने के लोभ से अपने इष्ट-बन्धुओं को मारने के लिए तैयार हो गए हैं।

 46.यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥

यदि धृतराष्ट्र के पुत्र शस्त्र हाथ में लेकर मुझे मार डालें और मैं बिना शस्त्र उठाए, बिना उनका मुकाबला किए युद्ध में मारा जाऊँ, तो वह मेरे लिए कहीं अधिक भला होगा। ’क्षेमतरम्’ की जगह कहीं-कहीं एक और पाठ ’प्रियतरम्’ भी है। अर्जुन के शब्द तीव्र व्यथा और प्रेम में कहे गए हैं। उनका मन दो संसारों के सीमान्त पर विद्यमान है। वह कुछ करने के लिए संघर्ष कर रहा है, जैसा कि मनुष्य आदिकाल से ही संघर्ष करता रहा है और फिर भी वह कुछ निर्णय कर पाने में असमर्थ है, क्योंकि उसमें न तो अपने-आप को, न अपने साथियों को और न उस विश्व की वास्तविक प्रकृति को ही समझ पाने की शक्ति है, जिसमें कि उसे ला खड़ा किया गया है। वह युद्ध के कारण होने वाले शारीरिक कष्ट और भौतिक असुविधाओं पर जोर दे रहा है। जीवन का मुख्य उद्देश्य भौतिक आनन्द की खोज नहीं है। यदि हम केवल वृद्धावस्था, अपंगता और मृत्यु की घटनाओं द्वारा ही जीवन के अन्त तक पहुँच जाएं, तो हम अवश्य ही जीवन को गंवा रहे होगें। किसी आदर्श के लिए, परम और न्याय के लिए हमें अत्याचार का विरोध करना होगा और कष्ट तथा मृत्यु का सामना करना होगा। युद्ध के ठीक किनारे पर पहुँचकर अर्जुन हिम्मत हार जाता है और सांसरिकता के विचारों के कारण युद्ध से विरत हो जाना चाहता है। उसे अभी यह समझना बाकी है कि पत्नियाँ और सन्तानें, गुरु और सम्बन्धी केवल उनके अपने निमित्त की वाणी सुननी शेष है, जो यह उपदेश देता है कि उसे ऐसा जीवन व्यतीत करना चाहिए, जिसमें उसके कर्मों का मूल कामना में या इच्छा में नहीं होगा और यह कि निष्काम कर्म- अभिलाषाहीन कार्य नाम की भी कोई वस्तु होती है

 47.एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोस्पथ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥

यह कहकर अर्जुन रणभूमि में अपना धनुष-बाण छोड़कर शोक से व्याकुल-चित्त होकर अपने रथ में बैठ गया।अर्जुन की यह परेशानी एक अनवरत आवर्ती दुर्दशा का एक नाटकीकरण है। उच्चतर जीवन की देहली पर खड़ा हुआ मनुष्य इस संसार की तड़क-भड़क से निराश हो जाता है; फिर भी मोह उससे चिपटे रहते हैं और वह उन्हें पालता रहता है। वह अपनी दिव्य वंश-परम्परा को भूल जाता है और अपने व्यक्तित्व में आसक्त हो जाता है और संसार की परस्पर संघर्षशील शक्तियों से उद्विग्न होने लगता है। आत्म-जगत् में जागने और उसके द्वारा लादे गए दायित्वों को स्वीकार करने से पहले उसे स्वार्थ और मूढ़ता (लोभ और मोह) रूपी शत्रुओं से लड़ना होगा और अपने आत्मकेन्द्रित अहंकार के अन्धकारपूर्ण अज्ञान पर विजय पहुँचाना होगा। यहाँ पर जिस वस्तु का चित्रण किया गया है, वह है मानवीय आत्मा का विकास। इसके लिए देश और काल की कोई सीमा नहीं है। यह युद्ध मनुष्य की आत्मा में प्रतिक्षण होता रहता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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