भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 200

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-11
भगवान् का दिव्य रूपान्तर
अर्जुन भगवान् के सार्वभौमिक (विश्व) रूप को देखना चाहता है

   

अर्जुन उवाच

1.मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।
यत्वयोक्तं वचस्तेन मोहोअयं विगतो मम॥

अर्जुन ने कहाःतूने आत्मा के सम्बन्ध में करुणा करके जो मुझे यह परम रहस्य समझाया है, उसके कारण मेरा मोह समाप्त हो गया है।यह भ्रम, कि संसार की वस्तुएं अपने सहारे ही विद्यमान हैं और स्वयं अपने-आप को संभाले हुए हैं और यह कि वे परमात्मा के बिना ही जीवित रहती हैं और चलती-फिरती हैं, समाप्त हो गया है।

 2.भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ सितरशो मया।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्॥

हे कमललोचन (कृष्ण), मैंने तुझसे वस्तुओं के जन्म और विनाश के सम्बन्ध में और साथ ही तेरे अनश्वर गौरव के सम्बन्ध में विस्तार से सब-कुछ सुना है।

 3.एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
छ्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम॥

हे परमेश्वर, यदि यह सब ऐसा ही है, जैसा कि तूने बताया है, तो हे पुरुषोत्तम, मैं तेरे ईश्वरीय दिव्य रूप को देखना चापहता हू।इस बात को जानना, कि शाश्वत आत्मा सब वस्तुओं में निवास करती है, एक बात है और इसका दर्शन करना दूसरी बात। अर्जुन दिव्य रूप को देखना चाहता है, अदृश्य ब्रह्म के दृश्यमान शरीर को और इस बात को, कि वह परमात्मा ’जो सब वस्तुओं का जन्म और मृत्यु है’, कैसा है। 10, 8। अव्यक्त आधिभौतिक सत्य को दृश्यमान वास्तविकता बनाया जाना चाहिए।

4.मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्॥

हे प्रभु, यदि तू समझता है कि वह रूप मुझे दिर्खा पड़ सकता है, तो हे योगेश्वर (कृष्ण), तू अपना वह अनश्वर रूप मुझे दिखा।

भगवान् का प्रकट होना
श्रीभगवानुवाच

5.पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोअथ सहस़्त्रशः।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च॥

हे पार्थ (अर्जुन), तू मेरे सैकड़ों-हजारों, नाना प्रकार के दिव्य, विविध रंगों और आकृतियों वाले रूपों को देख। दिव्य शक्ति का महान् आत्मप्रकाशन उस अर्जुन के सम्मुख प्रकट होता है, जो विश्व की प्रक्रिया और भवितव्यता के सच्चे अर्थ को समझता है। महाभारत में 6, 13। में यह कहा गया है कि कृष्ण अपने विश्व-रूप में दुर्योधन के सम्मुख तब प्रकट हुआ था, जबकि सन्धि का अन्तिम प्रयत्न करने के लिए आए हुए कृष्ण को दुर्योधन ने बन्दी बना लेने का प्रयत्न किया था। यह दिव्य रूप-दर्शन कोई किंवदन्ती या पौराणिक कथा नहीं है, अपितु एक आध्यात्मिक अनुभव है। धार्मिक अनुभव के इतिहास में इस प्रकार के अनेक दर्शनों का उल्लेख प्राप्त होता है। ईसा का रूपान्तर[1]दमिश्क की सड़क पर साऊल का दर्शन कौन्स्टैण्टाइन द्वाना एक क्रास का वर्णन, जिस पर कि ये शब्द अंकित थे ’इस चिहृ को लेकर विजय करो, तथा जान आफ आर्क के इसी प्रकार के दर्शन अर्जुन के दिव्य रूप-दर्शन की कोटि के ही अनुभव है।

6.पश्यादित्यान्वसून्रुदानश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्यातर्याणि भारत॥

हे भारत (अर्जुन), तू आदित्यों को, वसुओं को, रुदों को, दो अश्विनों को और मरुतों को देख। और भी अनेक आश्चों का देख, जिन्हें कि तूने पहले कभी नहीं देखा।

7.इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि॥

हे गुडाकेश (अर्जुन), यहाँ आज तू सारे जगत् को देख और जो कुछ तू देखना चाहता है, उस सबको मेरे शरीर में एकत्र हुआ देख।यह सब वस्तुओं का एक परमात्मा में दर्शन है। जब हम अपने ज्ञान की पूरी क्षमता का विकास कर लेते हैं, तब हम इस बात को देख लेते हैं कि सब (अतीत, वर्तमान और भविष्यत)वर्तमान ही है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मार्क 9, 2-8। हिल्डेगार्ड (1098-1180) (स्त्री) ने एक दर्शन का उल्लेख किया है, जिसमें उसने एक ’सुन्दर मानवीय रूपी’ पुरुष को देखा गया था; उस रूप ने अपना परिचय जिन शब्दों में दिया था, उसने गीता के इस वर्णन का याद आ जाती है। ’’मैं ही वह सर्वोच्च और अग्निमय शक्ति हूं, जो जीवन की सब चिनगारियों को जन्म देती है मुझमें मृत्यु का कोई अंश नहीं है, फिर भी मैं उसका नियतन करता हूं, क्यों कि मैं ज्ञान द्वारा उसी प्रकार ढका हुआ हूं, जैसे पक्षी पंखों से ढका होता है। मैं दिव्य तत्त्व का वह सप्राण और अग्निमय सार हूं, जो खेतों के सौन्दर्य में चमकता है। मैं पानी में चमकता हूं; मैं सूर्च और चन्द्रमा और तारों में जल रहा हूँ। अदृश्य वायु में जो रहस्यमय शक्ति है, वह मेरी ही है। मैं सब प्राणियों के श्वास को संभाल रखता हूँ। हरियाली और फूलों में मैं ही सांस लेता हूं, और जब जलधाराएं जीवित वस्तुओं की भाँति बहती हैं, तब वह मैं ही होता हूँ। मैंने ही उन स्तम्भों को बनाया है, जो सारी पृथ्वी को संभालते हैं ... ये सब इसलिए जीवित हैं, क्योंकि मैं उनमें हूं, और मैं उनका जीवन हूँ। मैं ज्ञान हूँ। जिस गर्जनामय शब्द से ये सब वस्तुएं बनी थीं, वह शब्द मेरा ही है। मैं सब वस्तुओं में रमा हुआ हूं, जिससे वे निष्प्राण न हो जाएं। मैं जीवन हूँ। ’’ चाल्र्स सिंगर द्वारा सम्पादित ’स्टड़ीज’ इन दी हिस्ट्री एण्ड मैथड आॅफ्र साइन्स’ (1917) में ये उद्धत; पृ0 33,

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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