भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 254

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-18
निष्कर्ष
संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए

   

संजय उवाच

74.इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भंत रोमहर्षणमद्॥

संजय ने कहा: इस प्रकार मैंने वासुदेव और महान् आत्मा वाले पार्थ (अर्जुन), के मध्य हुए इस आश्चर्यजनक संवाद को सुना है, जिससे मेरे रोंगटे खडे़ हो गए हैं।

75.व्यासप्रसादाच्छुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्॥

व्यास की कृपा से मैंने स्वयं इस परम रहस्यपूर्ण योग को साक्षात् स्वयं योगेश्वर कृष्ण द्वारा उपदेश दिए जाते हुए सुना है।व्यास ने संजय को यह शक्ति प्रदान की थी कि वह रणभूमि में होती हुई घटनाओं को दूर बैठा हुआ भी देख और सुन सकेगा, जिससे वह उन सब घटनाओं को अन्धे राजा धृतराष्ट्र को सुना सके।

76.राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः॥

महाराज, मैं केशव (कृष्ण) के इस अद्भुत और पवित्र संवाद को बारम्बार स्मरण करके आनन्द से पुलकित हो रहा हूँ।

77.तच्च संस्मृत्य संस्मुत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः॥

और जब-जब मैं हरि (कृष्ण) के उस अत्यन्त आश्चर्यजनक रूप को याद करता हूं, तो मुझे बहुत विस्मय होता है; मैं बार-बार पुलकित हो उठता हूँ।संस्मृत्य सास्मृत्य: जब-जब मैं याद करता हू। कृष्ण और अर्जुन का संवाद तथा परमात्मा की वास्तविकता कोई दार्शनिक प्रस्थापनाएं नहीं है, अपितु आध्यात्मिक तथ्य हैं। हम उनके अर्थ को केवल उनको कह-सुन-भर लेने से नहीं समझ सकते, अपितु प्रार्थना और ध्यान के रूप में उन पर मनन करके समझ सकते हैं।

78.यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्धुवा नीतिर्मतिर्मम॥

जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी पार्थ (अर्जुन), है, मुझे लगता है कि श्री (सौभाग्य), विजय, कल्याण और नीति (नैतिकता) भी अवश्य वहीं रहेगीं।गीता का उपदेश योग है और उस उपदेश को देने वाला योगेश्वर है। जब मानव-आत्मा प्रबुद्ध और ब्रह्म के साथ एक हो जाती है, तब सौभाग्य और विजय, कल्याण और नैतिकता सुनिश्चित हो जाती हैं। हमसे कहा गया है कि हम दिव्य दर्शन (योग) और ऊर्जा (धनुः) का संयोग करें और इनमें से पहले को विकृत होकर पागलपन में या पिछले को बर्बरता में न बदल जाने दें। दिव्य जीवन के सुमहान् तत्त्व- जिन्हें बैरन वौन ह्य गल ’धर्म के महान् केन्द्रीय तत्त्व’ कहना पसन्द करता था- योग, उपासना द्वारा परमात्मा की प्राप्ति, और उस परमात्मा की इच्छा के सम्मुख पूर्ण वशवर्तिता, और धनुः अर्थात् विश्व की आयोजना को आगे बढ़ाने में सक्रिय भाग लेना है। आत्मिक दिव्य दर्शन तथा समाज-सेवा साथ-साथ चलने चाहिए। यहाँ मानवीय जीवन के दुहरे उद्देश्य, व्यक्तिगत पूर्णता तथा सामाजिक कार्यक्षमता का संकेत किया गया है। [1] जब प्लेटो ने यह भविष्यवाणी की थी कि तब तक संसार में अच्छी शासन-व्यवस्था स्थापित नहीं होगी, जब तक कि दार्शनिक लोग राजा नहीं बन जाएंगे, तब उसका अभिप्राय यही था कि मानवीय पूर्णता उच्च विचार और न्याय्य कर्म के परस्पर विवाह की-सी एक वस्तु है। गीता के अनुसार, मनुष्य का सर्वदा यही लक्ष्य रहना चाहिए। इति ... मोक्षसंन्यास योगो नामाष्टदशोअध्यायः। इति श्रीमद्भगवद्गीता- उपनिषदः समाप्ताः। यह है ’संन्यास द्वारा मोक्ष, नामक अठारहवां अध्याय। भगवतद्गीता उपनिषद् समाप्त।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तुलना कीजिएः ’’मैं तो उस पवित्र संसार को जानना चाहतू हूं, जिसमें ब्राह्मणत्व (ब्रह्म) और राजत्व (क्षत्र) दोनों मिलकर साथ-साथ चलते हों।’’ - वाजसनेयिसंहिता, 20, 5

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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