भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 222

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-14
सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक सर्वोच्च ज्ञान

   

श्रीभगवानुवाच

1.परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यःयज्ज्ञात्वा मुन सर्वे परां सिद्धिमितो गताः॥

श्री भगवान् बोले:अब मैं तुझे वह सर्वोच्च ज्ञान भी बताऊंगा, जो सब ज्ञानों में श्रेष्ठ है और जिसे जानकर सब मुनि इस संसार से ऊपर उठकर परम सिद्धि (पूर्णता) तक पहुँच गए हैं।

2.इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥

इस ज्ञान का सहारा लेकर और मेरे स्वरूप वाले बनकर वे सृष्टि का समय आने पर भी जन्म नहीं लेते; और न वे प्रलयकाल आने पर दुःखी ही होते हैं। शाश्वत जीवन अनिर्देश्य परब्रह्म में विलीन हो जाना नहीं है, अपितु एक ऐसी सार्वभौमता और आत्मा की स्वतन्त्रता को प्राप्त कर लेना है, जो अनुभवगस्य गतिविधि से ऊपर उठी हुई है। इसकी स्थिति सृष्टि और प्रलय की प्रक्रियाओं से अप्रभावित रहती है, क्योंकि यह सब प्रकार के प्रकटनों (विभूतियों) से बढ़कर है। मुक्त आत्मा उन्नति करता हुआ ब्रह्म के समान हो जाता है और एक अपरिवर्तनशील अस्तित्व धारण कर लेता है, जो नित्यरूप से उस परमेश्वर के प्रति सचेत रहता है, जो विश्व के विविध रूपों को धारण करता है। यह स्वरूपता या तद्रूपता नहीं है, अपितु केवल समानधर्मता या गुणों की समानता है। वह उसके साथ एक स्वभाव वाला हो जाता है, जिसकी कि वह खोज कर रहा होता है और सादृश्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है। वह अपनी बाह्यय चेतना और जीवन में ब्रह्म को अनुभव कर लेता है। तुलना कीजिए: ’’इसलिए तुम पूर्ण बनो, ठीक वैसे ही, जैसे कि तुम्हारा पिता, जो स्वर्ग में है, पूर्ण है।’’ मैथ्यू 5, 48। शंकराचार्य का मत इससे भिन्न है। उसका विचार है कि साधम्र्य का अर्थ स्वभाव की तदू्रपता है, गुणों की समानता नहीं। [1]

3.मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भ दधाम्यहम्।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥

महान् ब्रह्म (प्रकृति) मेरा गर्भ है: मैं उसमें बीज डालता हूँ और हे भारत (अर्जुन), उससे ये सब वस्तुएं और प्राणी उत्पन्न होते हैं।यदि हम केवल प्रकृति की उपज होते, तो हम शाश्वत जीवन को प्राप्त नहीं कर सकते थे। इस श्लोक में यह बात स्पष्ट रूप से कही गई है कि सारा अस्तित्व ब्रह्म की ही एक अभिव्यक्ति है। वह विश्व का बीज है। इस संसार के प्रसंग मे वह हिरण्यगर्म, विश्व-आत्मा, बन जाता है। शंकराचार्य का कथन है: ’’मैं क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को संयुक्त करता हूं, जिससे हिरण्यगर्भ का जन्म होता है और उससे सब प्राणी उत्पन्न होते हैं।’’ भगवान् वह पिता है, जो गर्भ में, जो कि अनात्म है, बीज, जो कि सारभूत जीवन है, डालता है और इस प्रकार प्रत्येक व्यष्टि के जन्म का कारण बनता है। यह संसार ससीम पर हो रही असीम की क्रीड़ा है। देखिए 2, 12 पर टिप्पणी। यहाँ लेखक ने असत्, प्रलय या रात्रि, में से रूप के विकास के सृष्टि-सिद्धान्त को अपनाया है। सब वस्तुओं के रूप,जो अथाह शून्य में से उत्पन्न होते हैं, परमात्मा से ही निकले हैं। वे ही वे बीज हैं, जिन्हें वह असत् में डालता है।

4.सर्वयोनिषु कौन्तये मूर्तयः संभवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता॥

हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन) जहाँ कहीं भी जिन किन्हीं भी योनियों में जो भी रूप उत्पन्न होते हैं, उन सबकी योनि महान् ब्रह्म है और मैं पिता हूं, जो कि बीज डालता है। सब जीवित रूपों की माता प्रकृति है और पिता परमात्मा है। क्योंकि प्रकृति भी परमात्मा की ही एक प्रकृति (स्वभाव) है, इसलिए परमात्मा विश्व का पिता और माता दोनों ही है। वह विश्व का बीज और गर्भ दोनों है। इस धारणा को पूजा के कुछ रूपों में उपयोग किया गया है; पूजा के ये रूप उस वस्तु से विकसित हुए हैं, जिसकी कुछ आधुनिक पवित्रवादी अश्लील लिग-पूजावाद कहकर खिल्ली उड़ाते हैं। परमात्मा की आत्मा हमारे जीवनों में प्राण डालती है और उन्हें वैसा बनाती है, जैसा कि उन्हें परमात्मा बनाना चाहता है।ब्रह्म इस संसार का वीर्यरूप कारण है। सब वस्तुएं ब्रह्म के वीर्याणुओं (लागोई स्परमेटिकोई) अर्थातृ प्राणदायिनी आत्माओं द्वारा भौतिक तत्त्व के गर्भाधान के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है। उनके द्वारा ही परमात्मा संसार में अपना काम चलाता है। ब्रह्म (लोगोस) कि ये बीज ही वे आदर्श (विचारात्मक) रूप हैं, जो भौतिक तत्त्व के स्थूल संसार को वस्तुओं और प्राणियों के रूप में ढालते हैं।
वे आदर्श या विचार, होने वाली वस्तुओं के नमूने, सबके सब उसकी अव्यक्त में तत्स्थानीय सम्भावना में है; उसमें वह वह शाश्वत कारण के रूप में विद्यमान रहती है, जिसका कि अभिव्यक्ति एक बाह्य प्रकट-रूप है। परमात्मा को सृष्टि का, उसके सम्पूर्ण विस्तार समेत नित्य दर्शन होता रहता है। सुकरात और प्लेटो की रचनाओं में विचारों और भौतिक तत्त्व की द्वैत के रूप में कल्पना की गई है, जहाँ विचारों के सूक्ष्म जगत् और भौतिक तत्त्व के स्थूल जगत् के मध्य विद्यमान सम्बन्ध को समझ पाना बहुत कठिन है। गीता में इन दोनों को ब्रह्म का अंश बताया गया है। परमात्मा स्वयं ही बीज-रूपी विचारों को स्थूल जगत् के रूपों में अवतरित करता है। ये बीज-रूप विचार, जिनका उद्गम दैवीय है और जो कारण-रूप ब्रह्म (लोगोस) के अंश हैं, परमात्मा के प्रति हमारे प्रेम की व्याख्या करते हैं। जहाँ परमात्मा एक अर्थ में मानवीय प्रकृति के लिए अनुभवातीत है, वहाँ आत्मा में ब्रह्म की एक प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति भी है। विश्व की यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है, जब तक कि कारण-रूप मूल (ऐल्फा) और अन्तिम निष्पत्ति (ओमेगा) परस्पर मिल न जाए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मम परमेश्वरस्य साधम्र्य मत्यस्वरूपतां न तु समानधर्मातां साधम्र्यम्, क्षेत्रज्ञेश्वरयोर्भेदानभ्यूपरागमाद् गीताशास्त्रे- शंकराचार्य। मम ईश्वरस्य साधम्र्य सर्वात्मत्वं सर्वनियन्ततृत्वम्, इत्यादिधर्मसाम्यं साधम्र्यम्। - नीलकण्ठ। मम साधम्र्य मद्रूपत्वम्। - श्रीधर।

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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