भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 74

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

Prev.png
अध्याय -1
अर्जुन की दुविधा और विषाद

                       
36.निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः॥

हे कृष्ण, धृतराष्ट्र के इन पुत्रों को मारने से हमें क्या सुख प्राप्त हो सकता है? इन दुष्ट लोगों को मारने से हमें केवल पाप लगेगा। इस रक्तपातपूर्ण बलिदान से हमें क्या लाभ होगा? जिन लोगों को हम इतना प्यार करते हैं, उनके शवों पर से गुजरकर हम किस लक्ष्य तक पहुँचने की आशा कर सकते हैं? अर्जुन सामाजिक रूढ़ियों और परम्परागत नैतिकता को देखकर चल रहा है, अपने व्यक्तिगत सत्य के अनुभव को देखकर नहीं। उसे बाह्य नैतिकता के प्रतीकों को मार डालना होगा और अपनी आन्तरिक शक्ति का विकास करना होगा। उसके जिन पहले गुरुओं ने उसे जीवन का मार्ग दिखाया था, उन्हें मार डालना होगा। उसके बाद ही वह आत्मज्ञान प्राप्त कर सकेगा। अर्जुन अब भी ज्ञानसम्पन्न स्वार्थ की भाषा में बोल रहा है। भले ही शत्रु आक्रान्ता हों, हमें उन्हें नहीं मारना चाहिए। न पापे प्रति पापः स्यात्ः एक पाप का बदला लेने के लिए दूसरा पाप मत करो। ’’ दूसरों के क्रोध को बिना क्रोध किए जीतो; बुरे काम करने वालों को साधुता से जीतो; कंजूस को दान देकर जीतो और असत्य को सत्य से जीतो।’’[1]

 37.तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्या सुखिनः स्याम माधव॥

इसलिये अपने सम्बन्धी इन धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारना हामरे लिए उचित नहीं है। हे माधव (कृष्ण), अपने इष्ट-बन्धुओं को मारकर हम किस प्रकार सुखी हो सकते हैं?

 38.यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्धिर्जनार्दन॥

भले ही मन में लोभ भरा है होने के कारण ये सब परिवार के विनाश की बुराई और मित्रों के प्रति द्रोह करने के पाप को देख नहीं पा रहे;

 39.कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्धिर्जनार्दन॥

परन्तु हमें तो कुल के विनाश के कारण होने वाला दोष भली-भाँति दिखाई पड़ रहा है। इसलिये हे जनार्दन (कृष्ण), हमें इस पाप से दूर रहने की समझ होनी चाहिये। वे लोभ से अन्धे हो गए हैं और उनका ज्ञान नष्ट हो गया है। परन्तु हमें तो दोष दिखाई पड़ रहा है। यदि हम यह मान भी लें कि वे स्वार्थभावना से और लोभ से दोषी हैं। तो भी उन्हें मारना ठीक नहीं; और यह और भी बड़ा दोष होगा, क्योंकि जो लोग अपने लोभ के कारण अन्धे हैं, उन्हें उस पाप का ज्ञान नहीं है, जिसे वके कर रहे हैं। परन्तु हमारी तो आंखे खुली हैं और हमें दीख रहा है कि हत्या करना पाप है।


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अक्रोधेन जयेत्क्रोधं, असांधु साधुना जयेत् ।जसयेत्कदर्य दानेन, जयेत्सत्येन चानृतम् ॥- महाभारत, उद्योगपर्व, 38,73,74 देखिए धम्मपद, 223

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः