ज्ञानेश्वरी पृ. 95

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-3
कर्मयोग


श्रीभगवान उवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव: ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥37॥

तब हृदयरूप कमल में विश्राम लेने वाले और निष्काम योगी जिसकी इच्छा (चाहना) करते हैं, ऐसे जो श्रीकृष्ण हैं, वे अर्जुन के प्रति बोले, सुनो। यह बल-प्रयोग करने वाले एकमात्र काम और क्रोध ही होते हैं। इन्हें दया से कुछ भी लेना-देना नहीं होता। ये काल की भाँति बेरहम होते हैं। ये ज्ञानरूपी निधि को चारों ओर से आवेष्टित करने वाले भुजंग हैं। ये विषयरूपी कंदरा के बाघ हैं अथवा ये भजन-मार्ग में लूट-खसोट करने वाले प्राणघातक डोम हैं। ये देहरूपी दुर्ग के पत्थर हैं, ये इन्द्रियरूपी ग्राम के परकोटे हैं। अविवेक आदि दोषों से सारे संसार पर इन्हीं का आधिपत्य छाया हुआ है। ये मन के रजोगुण से उत्पन्न हुए हैं और सम्पूर्ण आसुरी सम्पत्ति के बने हुए हैं। इनका पालन-पोषण अविद्या से हुआ है। वास्तव में इनका जन्मस्थान तो रजोगुण ही है, पर ऐसा लगता है कि ये तमोगुण को बहुत प्यारे हैं। इसीलिये तमोगुण ने प्रमाद और मोहरूप अपनी गद्दी इनको बहाल (अर्पण) की है। ये काम और क्रोध जीवन को धारण करने वाले जीवों के शत्रु हैं, इसलिये मृत्युरूपी नगरी में इनका बहुत मान-सम्मान है। जब इन्हें भूख लगती है, तब सारा संसार भी इनके एक कौर के बराबर का भी नहीं होता। इन काम-क्रोधों का जो (नाशकारक) व्यापार है, उस व्यापार पर आशा देख-रेख करती है। उसी प्रकार भ्रान्ति भी इन्हें बहुत प्रिय है, जो कि आशा की छोटी बहन है। वह भ्रान्ति जब एक बार भी अपनी मुट्ठी खोलती है तो उसमें कुछ-न-कुछ दबोचना अवश्य चाहती है, तो फिर उस मुट्ठी में चौदहों भुवनों का भी पता नहीं चलता। यह भ्रान्ति ऐसी विलक्षण है कि जब यह खेल खेलती है, तब त्रिभुवनरूप खाद्य को सहज ही हजम कर जाती है। इसी की दासवृत्ति के बल पर तृष्णा का निर्वाह भी होता है। ये रहने दो! इन काम-क्रोध का मोह के घर में मान-सम्मान है, अपने कर्तत्त्व से संपूर्ण जगत् को नचाता है, वह अहंकार इन काम-क्रोध के पास लेन-देन करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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