श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
अब जनक आदि सत्पुरुषों को ही देखो, जिन्होंने विहित कर्मों को करते हुए भी मोक्ष पद को प्राप्त कर लिया है। इसलिये हे पार्थ! स्वकर्म के प्रति सदा आस्था रखनी चाहिये। स्वकर्म का पालन करने से एक और बात की भी सिद्धि होगी। जब हम स्वकर्म अनुष्ठान करेंगे, तब दूसरे लोगों को भी उचित आचार की शिक्षा मिलेगी और अनायास ही उनके दुःख भी दूर हो जायँगे। देखो, जो लोग ब्रह्म-स्थिति में पहुँचकर कृतार्थ हो चुके हैं और जो निष्काम हो चुके हैं, वही अन्य लोगों को भी उचित दिशा देते हैं। इतना ही नहीं, उस ज्ञानोत्तर काल में भी उन्हें अपने कर्तव्य कर्म का निर्वहन करना पड़ता है। जैसे अन्धे को ले जाने वाला नेत्रवान् मनुष्य उसे लेकर आगे-आगे चलता है, वैसे ही ज्ञानी लोगों को अपने साथ अज्ञानियों को लेकर चलना चाहिये और उन्हें स्वधर्म का पाठ पढ़ाना चाहिये। अजी, यदि ज्ञानी लोग ऐसा न करेंगे तो अज्ञानी लोगों को क्या पता चलेगा और कर्तव्य-मार्ग का उन्हें किस प्रकार ज्ञान हो सकेगा?[1]
इस संसार की परिपाटी ही यह है कि श्रेष्ठजन जैसा आचरण करते हैं; लोक में उसी का नाम ‘धर्म’ पड़ जाता है और सामान्य लोग उसी आचरण का अनुकरण करते हैं। यह बात नितान्त स्वाभाविक रूप से होती रहती है, इसलिये स्वकर्म का अनुष्ठान कदापि नहीं छोड़ना चाहिये। फिर जो सन्तजन हैं, उन्हें तो स्वकर्म का अनुष्ठान करना-ही-करना चाहिये।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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