ज्ञानेश्वरी पृ. 84

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-3
कर्मयोग


कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय: ।
लोकसङ्‌ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥20॥

अब जनक आदि सत्पुरुषों को ही देखो, जिन्होंने विहित कर्मों को करते हुए भी मोक्ष पद को प्राप्त कर लिया है। इसलिये हे पार्थ! स्वकर्म के प्रति सदा आस्था रखनी चाहिये। स्वकर्म का पालन करने से एक और बात की भी सिद्धि होगी। जब हम स्वकर्म अनुष्ठान करेंगे, तब दूसरे लोगों को भी उचित आचार की शिक्षा मिलेगी और अनायास ही उनके दुःख भी दूर हो जायँगे। देखो, जो लोग ब्रह्म-स्थिति में पहुँचकर कृतार्थ हो चुके हैं और जो निष्काम हो चुके हैं, वही अन्य लोगों को भी उचित दिशा देते हैं। इतना ही नहीं, उस ज्ञानोत्तर काल में भी उन्हें अपने कर्तव्य कर्म का निर्वहन करना पड़ता है। जैसे अन्धे को ले जाने वाला नेत्रवान् मनुष्य उसे लेकर आगे-आगे चलता है, वैसे ही ज्ञानी लोगों को अपने साथ अज्ञानियों को लेकर चलना चाहिये और उन्हें स्वधर्म का पाठ पढ़ाना चाहिये। अजी, यदि ज्ञानी लोग ऐसा न करेंगे तो अज्ञानी लोगों को क्या पता चलेगा और कर्तव्य-मार्ग का उन्हें किस प्रकार ज्ञान हो सकेगा?[1]


यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरा जन: ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥21॥

इस संसार की परिपाटी ही यह है कि श्रेष्ठजन जैसा आचरण करते हैं; लोक में उसी का नाम ‘धर्म’ पड़ जाता है और सामान्य लोग उसी आचरण का अनुकरण करते हैं। यह बात नितान्त स्वाभाविक रूप से होती रहती है, इसलिये स्वकर्म का अनुष्ठान कदापि नहीं छोड़ना चाहिये। फिर जो सन्तजन हैं, उन्हें तो स्वकर्म का अनुष्ठान करना-ही-करना चाहिये।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (152-157)
  2. (158-159)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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