ज्ञानेश्वरी पृ. 835

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग

ठीक इसी प्रकार अध्यात्मशास्त्र के अधिकारियों को इसके अन्दर स्थित गम्भीर रहस्य का ज्ञान होता है पर बहुत-से लोग एकमात्र वाक्-चातुरी से भी सुखी होते ही हैं। वास्तव में यह सारा-का-सारा महत्त्व श्रीनिवृत्तिनाथजी का ही है। आपलोग इस प्रबन्ध को ग्रन्थ न कहें, अपितु यह श्रीगुरुनाथ की कृपा का ही वैभव है। प्राचीनकाल में क्षीर-सिन्धु के सन्निकट भगवान् शिव ने पार्वती जी के कानों में जो रहस्य बतलाया था, वह रहस्य क्षीर-सिन्धु की तरंगों के मकर के उदर में रहने वाले मत्स्येन्द्रनाथ को प्राप्त हुआ था। मत्स्येन्द्रनाथ को भग्न अवयव वाले चौरंगीनाथ सप्तश्रृंगी पर मिले। चौरंगीनाथ के भग्न अवयव मत्स्येन्द्रनाथ के दर्शनों से पूर्व की ही भाँति ठीक हो गये। फिर मत्स्येन्द्रनाथ ने अटल समाधि का सम्यक् उपभोग करने का विचार किया और इसीलिये उस रहस्य का संकेत उन्होंने श्रीगोरक्षनाथ को बतला दिया। श्रीगोरक्षनाथजी योगरूपी कमलिनी के सरोवर तथा विषयों का विध्वंस करने वाले काल ही थे। मत्स्येन्द्रनाथ ने श्री गोरक्षनाथ को अपना समस्त अधिकार प्रदान कर अपनी समाधिपीठ पर अधिष्ठित कर लिया।

तदनन्तर श्रीगोरक्षनाथ ने उस अद्वैतानन्द का, जो श्रीशंकर के समय से चला आ रहा था, श्रीगैनीनाथजी को समूल उपदेश दिया। जिस समय उन गैनीनाथजी ने यह देखा कि कलिकाल समस्त जीवों को अपना ग्रास बना रहा है, उस समय उन्होंने श्रीनिवृत्तिनाथ को आदेश दिया कि आदि शंकर से लेकर शिष्य परम्परा से रहस्य-बोध कराने का जो यह सम्प्रदाय मुझ तक चला आया है, वह सम्प्रदाय तुम स्वीकार करो तथा जिन जीवों को कलिकाल ग्रस रहा है उन जीवों की रक्षा करने के लिये तुम दौड़े हुए जाओ। श्रीनिवृत्तिनाथजी निसर्गतः कृपालु थे, तिसपर उन्हें ऐसे गुरु का आदेश मिला हुआ था। अतएव समस्त विश्व को शान्ति देने वाले श्रीनिवृत्तिनाथ वर्षा-ऋतु के मेघ की भाँति उठे। उस समय पीड़ितजनों पर करुणा करके गीतार्थ पिरोने के व्याज से उन्होंने शान्तरस की जो वृष्टि की थी, वही यह ग्रन्थ है। उस समय मैं चातक की तरह अत्यन्त अनुरागपूर्वक उनके समक्ष उपस्थित हो गया और यही कारण है कि आज मैं यह कीर्ति अर्जित कर सका हूँ। इस प्रकार जो आत्म-समाधिरूपी द्रव्य गुरुपरम्परा से मिला हुआ था, वही गुरु महाराज ने इस ग्रन्थ के द्वारा उपदेश करके मुझे प्रदान किया है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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