ज्ञानेश्वरी पृ. 824

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग


तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे: ।
विस्मयो मे महान्राजन्हृष्यामि च पुन: पुन: ॥77॥

फिर संजय ने खड़े होकर महाराज धृतराष्ट्र से कहा‌- हे राजन! श्रीहरी का साक्षात विश्वरूप का दर्शन कर आप इस प्रकार निश्चेट होकर क्यों बैठे हुए है? जो न देखने पर भी दृष्टिगोचर होता है, जो न होने के कारण ही अस्तित्व में है तथा जो विस्मृत होने पर ही स्मृतिपटलपर आता है, उससे यदि कोई बचना चाहे तो भला किस प्रकार बच सकता है? यहाँ तक तो रत्तिभर भी गुंजाइश नहीं है कि उसे दूर से देखकर सिर्फ आश्चर्य किया जाय। कारण कि इस सम्भाषणरूपी ज्ञान-गंगा का वेग इतना अधिक है कि वह अपने सहित मुझे भी बहाये लिये चला जाता है। संजय ने श्रीकृष्णानुर्जन- संवादरूपी इस संगम में स्नान करके अपने अहम भाव को तिलांजलि दे दी। उस दशा में वह परमानन्द का अनुभव करता हुआ थोड़ी-थोड़ी देर में कुछ बड़ाबड़ा उठता था और बार-बार रुद्ध कण्ठ से श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण कह उठता था; पर कुरुराज धृतराष्ट्र को उसकी दशा का कुछ भी भान नहीं था और वह अपने मन में उसके विषय में यों ही खरी-खोटी कल्पनाएँ कर रहा था। उस समय संजय को जो सुखानुभूति मिल रही थी। उसे स्वंय तक सीमित रखकर संजय ने अपनी वह विभोरता शान्त की। प्रसंग से हटकर महाराज धृतराष्ट्र ने संजय से कहा- हे संजय यह तुम्हारा कौन-सा तरीका है! महर्षि व्यास तुम्हें यहाँ किस काम के लिये बैठाया था और तुमने न जाने यह कहाँ का बखेड़ा लाकर खड़ा कर दिया।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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