श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
अन्न से प्राणिमात्र की वृद्धि होती है और अन्न की उत्पत्ति सदा पर्जन्य से होती है। यज्ञ से पर्जन्य की उत्पत्ति होती है और यज्ञ कर्म की सहायता से सिद्ध होते हैं। कर्म का मूल (उत्पत्ति स्थान) वेदरूप ब्रह्म है। अक्षर तथा परात्पर ब्रह्मतत्त्व से वेदब्रह्म की उत्पत्ति होती है। इसलिये यह चराचर जगत् मूलतः अक्षर परब्रह्म से ओत-प्रोत भरा हुआ है। तो भी, हे सुभद्रापति! तुम यह बात अच्छी तरह से जान लो कि कर्मरूप से अवतरित होने वाले इन यज्ञों में श्रुति का निरन्तर निवास रहता है।[1]
हे धनुर्धर! इस प्रकार मैंने तुम्हें स्वधर्मरूपी यज्ञ की यह आदि परम्परा संक्षेप में बतला दी है। इसीलिये यह स्वधर्मरूपी यज्ञ ही यथार्थतः उचित एवं करने योग्य कर्म है। भ्रम में पड़ा हुआ जो व्यक्ति इस संसार में जन्म लेकर भी यह यज्ञ नहीं करता, उसके सम्बन्ध में तुम्हें यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिये कि वह केवल ऐन्द्रिक इच्छाओं की पूर्ति के लिये ही इस संसार में आया हुआ है; इसलिये वह पाप की राशि बनकर इस पृथ्वी पर भाररूप ही है। ऐसे व्यक्ति का सारा जीवन ठीक उसी प्रकार व्यर्थ होता है, जिस प्रकार आकाश में छाया हुआ असमय का मेघ। स्वधर्माचरण से हीन मनुष्य को बकरी के गले में लटके हुए स्तन की तरह बिल्कुल व्यर्थ ही जानना चाहिये। इसलिये हे पाण्डव! यह बात तुम अच्छी तरह से जान लो कि कभी किसी को स्वधर्म का परित्याग नहीं करना चाहिये। पूरे मनोयोग के साथ स्वधर्म का ही आचरण करना चाहिये। जब हम लोग शरीरधारी हैं, तब तो निश्चित ही इस शरीर के साथ कर्तव्य कर्म लगा रहेगा। तो फिर हम अपना विहित कर्म क्यों छोड़ें? हे सव्यसाची! मनुष्य-शरीर पाकर भी जो अपने कर्तव्य-कर्म की उपेक्षा करता है, उसे मूढ़ ही समझना चाहिये।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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