ज्ञानेश्वरी पृ. 82

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-3
कर्मयोग


अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभव: ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव: ॥14॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्मा नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥15॥

अन्न से प्राणिमात्र की वृद्धि होती है और अन्न की उत्पत्ति सदा पर्जन्य से होती है। यज्ञ से पर्जन्य की उत्पत्ति होती है और यज्ञ कर्म की सहायता से सिद्ध होते हैं। कर्म का मूल (उत्पत्ति स्थान) वेदरूप ब्रह्म है। अक्षर तथा परात्पर ब्रह्मतत्त्व से वेदब्रह्म की उत्पत्ति होती है। इसलिये यह चराचर जगत् मूलतः अक्षर परब्रह्म से ओत-प्रोत भरा हुआ है। तो भी, हे सुभद्रापति! तुम यह बात अच्छी तरह से जान लो कि कर्मरूप से अवतरित होने वाले इन यज्ञों में श्रुति का निरन्तर निवास रहता है।[1]


एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य: ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥16॥

हे धनुर्धर! इस प्रकार मैंने तुम्हें स्वधर्मरूपी यज्ञ की यह आदि परम्परा संक्षेप में बतला दी है। इसीलिये यह स्वधर्मरूपी यज्ञ ही यथार्थतः उचित एवं करने योग्य कर्म है। भ्रम में पड़ा हुआ जो व्यक्ति इस संसार में जन्म लेकर भी यह यज्ञ नहीं करता, उसके सम्बन्ध में तुम्हें यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिये कि वह केवल ऐन्द्रिक इच्छाओं की पूर्ति के लिये ही इस संसार में आया हुआ है; इसलिये वह पाप की राशि बनकर इस पृथ्वी पर भाररूप ही है। ऐसे व्यक्ति का सारा जीवन ठीक उसी प्रकार व्यर्थ होता है, जिस प्रकार आकाश में छाया हुआ असमय का मेघ। स्वधर्माचरण से हीन मनुष्य को बकरी के गले में लटके हुए स्तन की तरह बिल्कुल व्यर्थ ही जानना चाहिये। इसलिये हे पाण्डव! यह बात तुम अच्छी तरह से जान लो कि कभी किसी को स्वधर्म का परित्याग नहीं करना चाहिये। पूरे मनोयोग के साथ स्वधर्म का ही आचरण करना चाहिये। जब हम लोग शरीरधारी हैं, तब तो निश्चित ही इस शरीर के साथ कर्तव्य कर्म लगा रहेगा। तो फिर हम अपना विहित कर्म क्यों छोड़ें? हे सव्यसाची! मनुष्य-शरीर पाकर भी जो अपने कर्तव्य-कर्म की उपेक्षा करता है, उसे मूढ़ ही समझना चाहिये।[2]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (134-137)
  2. (138-145)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः