ज्ञानेश्वरी पृ. 818

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग

अब मेरे लिये आपकी आज्ञा के अलावा अन्य कुछ भी अवशिष्ट नहीं रह गया है, क्योंकि जिसके दिखायी देने पर यह दृश्य जगत् नहीं रह जाता, जो स्वयं दूसरा होने पर भी द्वैत का सर्वनाश कर डालता है, जो एक होने पर भी सदा-सर्वत्र निवास करता है, जिसके संग सम्बन्ध होते ही समस्त बन्धन टूट जाते है, जिसकी आशा होते ही अन्य समस्त आशाओं का नाश हो जाता है, जिसके भेंट होने पर स्वयं अपने ही साथ अपनी भेंट हो जाती है, वह मेरे परमाराध्य गुरु देवता आप ही हैं। जो सदा ऐक्य के साथ रहने वाले हैं, जिनके कारण अद्वैत बोध के क्षेत्र में प्रवेश होता है और स्वयं ब्रह्मस्वरूप होकर करणीय और अकरणीय का झंझट दूर करके तथा एकनिष्ठ होकर जिनकी अपार सेवा करते रहना चाहिये, जो अपने भक्तों को स्वयं में ठीक वैसे ही मिला लेते हैं, जैसे समुद्र से भेंट करने वाली नदी आकर स्वयं समुद्र का ही रूप धारण कर लेती है, वे आप मेरे निरुपाधिक सेवायोग्य सद्गुरु हैं। अतएव अब आप यही जान लें कि मेरे ऊपर ब्रह्मस्वरूप के साक्षात्कार का उपकार हुआ है। आपके तथा मेरे बीच में जो भेद-भाववाली बाधा थी, उसे मिटा करके आज आपने मुझे अपनी सेवा का सुमधुर सुख प्राप्त कराया है। अतएव हे देवाधिपति भगवान् श्रीकृष्ण! अब आप मुझे जो कुछ आज्ञा प्रदान करेंगे, मैं उसका बिना पालन किये न रहूँगा।” अर्जुन की यह सब बातें सुनकर भगवान् आनन्द-विभोर हो गये। उन्होंने मन-ही-मन कहा कि आज मुझे अर्जुन के रूप में समस्त फलों से बढ़कर फल प्राप्त हुआ है। जिस चन्द्रमा की क्षीण कलाएँ पूर्ण हो जाती हैं, उस अपने पुत्र पूर्णचन्द्र को देखकर क्या क्षीर-सिन्धु अपनी मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करने लगता?

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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