श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग
मेरे और तुम्हारे संवाद में मोक्ष-धर्म को उत्पन्न करने वाली जिस कथा का विस्तार हुआ है, उसके सम्पूर्ण अर्थ का ज्ञान करा देने वाली इस गीता का जो बिना एक अक्षर में भी परिवर्तन किये पाठ करेगा, वह मानो ज्ञानाग्नि प्रज्वलित कर उसमें मूल अविद्या की आहुति देगा तथा शुद्धमति होकर मेरा स्वरूप प्राप्त करेगा। ज्ञानिजन गीतार्थ का अच्छी तरह अन्वेषण करके जो कुछ प्राप्त करते हैं, वे सुविज्ञ, वही चीज उन लोगों को भी प्राप्त होगी, जो इस गीता का पाठ करेंगे। गीतार्थ जानने वालों को जो फल प्राप्त होता है, वह फल गीता का सिर्फ पाठ करने वाले को भी प्राप्त होगा। यह गीता ज्ञानी तथा अज्ञानी सन्तान में कभी कोई भेद-भाव नहीं करती।
और जो सब तरह से निन्दा का त्याग कर शुद्ध बुद्धि से गीता-श्रवण के प्रति श्रद्धा रखता है, उसके श्रवणेन्द्रियों में गीता के अक्षर ज्यों ही प्रवेश करते हैं, त्यों ही उसके पाप उसे त्यागकर सुदूर भाग जाते हैं। जैसे जंगल में आग लगते ही उसमें निवास करने वाले समस्त जीव दसों दिशाओं में भाग जाते हैं अथवा जैसे उदयाचल के शिखर पर सूर्य के निकलते ही अन्धकार अन्तराल में जाकर छिप जाता है, ठीक वैसे ही श्रवणेन्द्रियों के महाद्वार में ज्यों ही गीता की झंकार पहुँचती है, त्यों ही सृष्टि की उत्पत्तिकाल तक के समस्त पाप विनष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार यह जन्मरूपी बेल दोषरहित होकर पुण्यरूपी पुष्पों से खिलती है और अन्ततः उसमें अपार फल आते हैं। कारण यह है कि श्रवणेन्द्रियों के द्वारा गीता के जितने अक्षर हृदय में प्रविष्ट करते हैं, उतने अश्वमेध का फल प्राप्त होता है। अतएव गीता के सुनने से पापों का क्षय होता है तथा पुण्य की वृद्धि होती है और अन्त में उन पुष्पों के द्वारा इन्द्र का ऐश्वर्य प्राप्त होता है। मुझसे मिलने के लिये वह जो प्रवास करता है, उसका प्रथम पड़ाव स्वर्ग में होता है और वहाँ वह जितना सुखोपभोग करना चाहता है उतना सुखोपभोग कर अन्ततः वह मुझमें ही आकर समा जाता है। हे धनंजय! गीता श्रवण करने वालों को भी तथा उसका पाठ करने वालों को भी इसी प्रकार आनन्द प्रदान करने वाले फल प्राप्त होते हैं। अब मैं इन बातों को कहाँ तक कहूँ! जो कुछ कहा जा चुका है, वही यथेष्ट है; पर जिस उद्देश्य के लिये मैंने इस शास्त्र का इतना अधिक विस्तार किया है, उस उद्देश्य के विषय में मैं अब तुमसे एक बात पूछता हूँ। |
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