श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
यदि आकाश के संग वायु अथवा समुद्र के संग तरंग मिलकर एक होने लगे तो भला उसमें कौन बाधा पहुँचा सकता है? हम और तुम जो पृथक्-पृथक् दृष्टिगोचर होते हैं, वह इसी देहधर्म के कारण दृष्टिगोचर होते हैं; पर जिस समय यह देह ही न रह जायगा, उस समय यह बात निश्चित है कि तुम भी ‘मैं’ ही हो जाओगे। मेरे इस वचन के बारे में तुम अपने मन में जरा-सी भी शंका मत उत्पन्न होने दो। यदि इस सम्बन्ध में तुम कुछ भी अवहेलना करो तो तुम्हें अपनी शपथ है। तुम्हें तुम्हारी ही शपथ देना मानो आत्मस्वरूप की ही शपथ देना है; पर इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, कारण कि प्रीति की रीति यही है कि वह लज्जा का कभी स्मरण ही नहीं होने देती और नहीं तो जो ज्ञान का विषय है, जो प्रपंच से अलिप्त है, जिसके कारण वास्तव में इस विश्व का भास होता है, स्वयं काल को भी जिसकी आज्ञा का प्रताप हरा देता है, वह मैं देव यदि सत्य-संकल्प हूँ और यदि मैं जगत् के हित के लिये सदा चेष्टाशील रहता हूँ, तो फिर मैं शपथ देने का व्यर्थ प्रयत्न ही क्यों करूँ? पर हे अर्जुन, तुम्हारे प्रेम के वशीभूत होने के कारण मैं इतना बौरा गया हूँ कि अपने ईश्वरत्व वाले भूषण भी मैंने उसी बौरापन के हवाले कर दिये हैं। हे पार्थ, यही कारण है कि मैं तो अधूरा हो गया हूँ और तुम मद्रूप होने के कारण सम्पूर्ण बन गये हो। हे धनंजय, जैसे अपना काम निकालने के लिये राजा को स्वयं अपनी ही शपथ खानी पड़ती है, ठीक वैसी ही बात यहाँ भी है।” इस पर अर्जुन ने कहा-“हे देव! आप ऐसी बातें न कहें, कारण कि मेरे सब कार्य एकमात्र आपके नामस्मरण से ही सिद्ध हो रहे हैं। तिस पर आप इस समय मुझे उपदेश प्रदान के निमित्त विराजमान हैं। अब यदि आप ही शपथ देने लगें तो फिर मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या आपकी इसी विनोदभरी लीला की कोई मर्यादा भी है? सूर्य-प्रकाश का एक अत्यल्प अंश भी कमलवन को प्रस्फुटित कर देता है, पर इसी निमित्त से वह पूर्णरूप से प्रकट होता है। मेघ इतनी वृष्टि करता है कि उससे पृथ्वी की दाहकता का भी शमन हो जाय तथा सम्पूर्ण समुद्र भी भर जाय। ऐसी दशा में जिस समय वह चातक की प्यास मिटाता है, उस समय क्या वह चातक उसका सिर्फ निमित्त नहीं है? अत: हे दयानिधि, दाताओं में सर्वश्रेष्ठ, क्या इस अवसर पर यह नहीं कहना पड़ता कि मैं भी आपकी इस उदारता का निमित्त मात्र ही हूँ?” |
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