ज्ञानेश्वरी पृ. 790

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

हे सुविज्ञ! इस क्रमयोग की महिमा इतनी अधिक है और यही कारण है कि मैं तुम्हें बार-बार इसका उपदेश करता हूँ। यह ‘मैं’ कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे देश-काल या पदार्थ इत्यादि साधनों के द्वारा प्राप्त किया जा सके, अपितु यह ‘मैं’ एक ऐसी चीज है जो स्वतः सब में पूर्णरूप से विद्यमान रहती है और इसीलिये मुझे पाने के लिये किसी प्रकार का कष्ट नहीं सहना पड़ता। वास्तव में मैं इसी क्रमयोग के द्वारा ही प्राप्त हो जाता हूँ। यह व्यवहार सर्वत्र प्रचलित है कि एक शिष्य होता है और दूसरा गुरु होता है; पर यह व्यवहार एकमात्र मेरी प्राप्ति का मार्ग जानने के लिये ही है। हे किरीटी! पृथ्वी के पेट में धन-दौलत, काष्ठ के उदर में अग्नि तथा स्तन में दूध स्वभावतः रहता ही है; पर इन चीजों को पाने के लिये जो उपाय करता है, वही इन्हें पा सकता है। ठीक इसी प्रकार वास्तव में मैं भी स्वतः सिद्ध ही हूँ, पर उपायों से साध्य होता हूँ।’ यहाँ कोई यह प्रश्न खड़ा कर सकता है कि इतने समय तक फल का विवेचन कर चुकने पर अब श्रीदेव उपाय की प्रस्तावना क्यों करते हैं, तो इसका एकमात्र उत्तर यह है कि इस प्रस्ताव में यह बतलाया गया है कि इस गीता का मुख्य रहस्य यही है कि प्रत्यक्ष मोक्ष-साधन के विषय में समस्त दृष्टियों से विवेचन किया जाय। अन्य अनेक शास्त्रों में भी इसके अनेक उपाय बतलाये गये हैं, पर उनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वे सब प्रमाण सिद्ध ही हैं। वायु अधिक-से-अधिक मेघों को उड़ा सकती है, पर वह सूर्य का सृजन नहीं कर सकती। हाथ से जल में स्थित शैवाल हटाकर एक तरफ की जा सकती है पर उससे जल नहीं उत्पन्न किया जा सकता।

इसी प्रकार आत्मदर्शन में बाधक जो अविद्यारूपी मल होता है, उसे तो शास्त्र दूर कर सकते हैं पर शेष ‘मैं’ नित्य स्वयं प्रकाश तथा निर्मल ही रहता हूँ। इसीलिये सम्पूर्ण शास्त्र एकमात्र अविद्यारूपी मल धोने के साधन है। इसके अलावा उनमें आत्मबोध कराने की कोई स्वतन्त्र योग्यता नहीं है। उन अध्यात्म शास्त्रों में जिस समय सच्चाई को साबित करने का प्रसंग आता है, उस समय वे जिस स्थान का आश्रय ग्रहण करते हैं वह स्थान यही गीता है। जिस समय सूर्य पूर्व दिशा को विभूषित करता है, उस समय समस्त दिशाएँ प्रकाशित हो जाती हैं। इसी प्रकार शास्त्रों को सही दिशा प्रदान करने वाली यह गीता है और इसी के सहयोग से समस्त शास्त्र सनाथ होते हैं। अस्तु।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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