श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
हे किरीटी! उसका सामना फिर चाहे जिस वस्तु से हो जाय और उसे चाहे जो वस्तु दिखायी दे, प्रतिक्षण उसे वही दर्शन होते रहते हैं और तब वह उस दृष्टि का उपभोग करता है, जो द्रष्टा और दृश्य दोनों से परे रहती है और जैसे आकाश सदा आकाश से ही खचाखच भरा रहने के कारण कभी टस-से-मस नहीं होता, ठीक वैसे ही स्वयं आत्मस्वरूप में प्रवेश करने के कारण वह भी कभी अपनी जगह से हिलता-डुलता नहीं। कल्प के अन्त में सर्वत्र जल-ही-जल हो जाता है और समस्त जल एक स्थान पर जमा हुआ सा रहता है, इसीलिये उसमें बहने की क्रिया हो ही नहीं सकती। इसी प्रकार जिस समय आत्मा में ही आत्मा भर जाती है, उस समय उसमें स्थिरता आ जाती है। पाँव जितनी दूर आगे बढ़ता है, उससे और आगे वह बढ़ ही कैसे सकता? अग्नि स्वयं को भस्म कैसे कर सकती है? जल स्वयं के ही स्नानार्थ कैसे उपयोगी हो सकता है? यही कारण है कि वह भक्त भी जिस समय पूर्णतया मद्रूप हो जाता है, उस समय उसका आवागमन इत्यादि सारे-के-सारे व्यवहार बन्द हो जाते हैं और यह बन्द होना ही मानो मेरी अद्वैतता की यात्रा है। जल पर तरंगें चाहे कितनी ही सुदूर क्यों न चली जायँ, तो भी यह नहीं माना जा सकता कि उसने भूमि पर की मंजिल पूर्ण की है। उसमें पुरानी जगह छोड़ने वाला भी जल ही होता है तथा नयी जगह ग्रहण करने वाला भी जल ही होता है; जो गति प्रदान करता है, वह भी जल ही होता है तथा जिसे गति मिलती है, वह भी जल ही होता है। आशय यह कि जो कुछ होता है, वह सब जल-ही-जल होता है। हे पाण्डुसुत! जल की बाढ़ चाहे कितनी ही अधिक क्यों न आवे, पर फिर भी उसका जलत्व सदा अबाधित ही रहता है और यही कारण है कि तंरगों का एकत्व कभी नष्ट नहीं होता। इसी प्रकार मैंपन का विस्तार चाहे कितना ही अधिक क्यों न हो, पर फिर भी वह सारा-का-सारा मुझमें ही आ पहुँचता है और इसी आवागमन के कारण वह मेरा ही यात्री ठहरता है और यदि देह के स्वभाववश वह कोई कर्म करने लगे, तो उस कर्म के निमित्त से भी मैं ही उसे प्राप्त होता हूँ। |
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