ज्ञानेश्वरी पृ. 782

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत: ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥55॥

जो भक्त इस ज्ञान-भक्ति के द्वारा मुझसे मिलकर एकरूप हो जाता है, उसके बारे में तुम यह सुन ही चुके हो कि वह भक्त नहीं है, अपितु स्वयं मैं ही हूँ। कारण कि हे कपिध्वज! सप्तम अध्याय में मैं हाथ उठाकर यह बात तुमको बतला चुका हूँ कि ज्ञान पुरुष मेरी आत्मा ही होता है। हे धनंजय! कल्पारम्भ में मैंने यही भक्ति भागवत के निमित्त से ब्रह्मदेव को सिखलायी थी। ज्ञानीजन इसे ‘स्व-संविती’ और शैव इसे ‘शक्ति’ कहते हैं तथा मैं इसे ‘अपनी परम भक्ति’ कहता हूँ। जिस समय क्रमयोगी (क्रमशः ब्रह्मप्राप्ति करने वाला) मद्रूप हो जाते हैं, उस समय उन्हें इसका फल प्राप्त होता है और तब फिर सम्पूर्ण जगत् एकमात्र मेरे योग से भर जाता है। उस दशा में विवेक के साथ-साथ वैराग्य, मोक्ष के साथ-साथ बन्ध तथा निवृत्ति के साथ-साथ वृत्ति भी पूर्णतया विनष्ट हो जाती है। सब कुछ इसी पार चला आता है और यही कारण है कि उस पार कुछ भी अवशिष्ट नहीं रह जाता। जैसे छिति, जल, तेज और वायु-इन चारों भूतों को निगलकर एकमात्र आकाश ही अवशिष्ट रहता है, ठीक वैसे ही साध्य और साधन से परे जो निर्मूल और निर्दोष तत्त्व मैं हूँ, उसी तत्त्व के साथ मिलकर और एकाकार होकर वह पुरुष आत्मानन्द का अनुभव करता है। जैसे गंगा समुद्र में प्रविष्ट होकर तथा उसके साथ मिलकर प्रकाशित होती है, ठीक वैसे ही तुम यह बात अच्छी तरह से समझ लो कि आत्मानन्द के उपभोग का भी स्वरूप होता है। जैसे दो दर्पण साफ करके एक-दूसरे के सम्मुख रखने पर उनके रूपों की एक-दूसरे में सुन्दर एकता होती है, ठीक वैसे ही द्रष्टा भी मेरे साथ समरस होकर आत्मानन्द का उपभोग करता है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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