श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
जो भक्त इस ज्ञान-भक्ति के द्वारा मुझसे मिलकर एकरूप हो जाता है, उसके बारे में तुम यह सुन ही चुके हो कि वह भक्त नहीं है, अपितु स्वयं मैं ही हूँ। कारण कि हे कपिध्वज! सप्तम अध्याय में मैं हाथ उठाकर यह बात तुमको बतला चुका हूँ कि ज्ञान पुरुष मेरी आत्मा ही होता है। हे धनंजय! कल्पारम्भ में मैंने यही भक्ति भागवत के निमित्त से ब्रह्मदेव को सिखलायी थी। ज्ञानीजन इसे ‘स्व-संविती’ और शैव इसे ‘शक्ति’ कहते हैं तथा मैं इसे ‘अपनी परम भक्ति’ कहता हूँ। जिस समय क्रमयोगी (क्रमशः ब्रह्मप्राप्ति करने वाला) मद्रूप हो जाते हैं, उस समय उन्हें इसका फल प्राप्त होता है और तब फिर सम्पूर्ण जगत् एकमात्र मेरे योग से भर जाता है। उस दशा में विवेक के साथ-साथ वैराग्य, मोक्ष के साथ-साथ बन्ध तथा निवृत्ति के साथ-साथ वृत्ति भी पूर्णतया विनष्ट हो जाती है। सब कुछ इसी पार चला आता है और यही कारण है कि उस पार कुछ भी अवशिष्ट नहीं रह जाता। जैसे छिति, जल, तेज और वायु-इन चारों भूतों को निगलकर एकमात्र आकाश ही अवशिष्ट रहता है, ठीक वैसे ही साध्य और साधन से परे जो निर्मूल और निर्दोष तत्त्व मैं हूँ, उसी तत्त्व के साथ मिलकर और एकाकार होकर वह पुरुष आत्मानन्द का अनुभव करता है। जैसे गंगा समुद्र में प्रविष्ट होकर तथा उसके साथ मिलकर प्रकाशित होती है, ठीक वैसे ही तुम यह बात अच्छी तरह से समझ लो कि आत्मानन्द के उपभोग का भी स्वरूप होता है। जैसे दो दर्पण साफ करके एक-दूसरे के सम्मुख रखने पर उनके रूपों की एक-दूसरे में सुन्दर एकता होती है, ठीक वैसे ही द्रष्टा भी मेरे साथ समरस होकर आत्मानन्द का उपभोग करता है। |
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