श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग
हे पाण्डुसुत! जिस समय पुरुष में ब्रह्मस्वरूप होने की यह योग्यता आ जाती है, उस समय वह पुरुष चित्त की उस प्रसन्नता के आसन पर विराजमान होता है, जो ब्रह्मबोध के कारण होती है। जिस उष्णता के कारण अन्न पकता है वही उष्णता जब पकाये हुए अन्न में से निकल जाती है, तब वह अन्न सेवन करने से समाधानकारक होता है। बरसात में जो बाढ़ आती है, उसकी सारी झंझटें मिटा करके शरद् काल में गंगा शान्त हो जाती है अथवा गीत समाप्त होते ही संगीत के उपांग-तबला आदि स्वतः बन्द हो जाते हैं। ठीक इसी प्रकार आत्मबोध पाने के लिये जो उद्योग होता रहता है, आत्मबोध होते ही उस सारे उद्योग का अवसान हो जाता है। ‘आत्मबोध प्रशस्ति’ इसी शान्त और प्रसन्न अवस्था का नाम है। उस पुरुष को यही प्रसन्नता वाली अवस्था प्राप्त होती है। ब्राह्म-साम्य की भरती उस सम हो चुकी होती है, इसलिये यदि उसकी कोई वस्तु उस समय खो जाय, तो उसे कुछ भी दुःख नहीं होता और यदि उसे कोई वस्तु मिलने को हो तो उसके लिये कोई चेष्टा भी नहीं करता। इन दोनों में से एक भी चीज उस पुरुष के द्वारा करने में हो ही नहीं सकती। जैसे सूर्योदय होते ही सम्पूर्ण नक्षत्र अपनी प्रभा खो देते हैं, वैसे ही आत्मस्वरूप के अनुभव का संचार होते ही, हे किरीटी! वह पुरुष जिस तरफ दृष्टि डालता है, उस तरफ उसके लिये मानो इस भेद-भावात्मक भूत-सृष्टि का अवसान ही हो जाता है। जैसे पाटों पर लिखे हुए अक्षर सिर्फ हाथ से पोंछकर मिटाये जा सकते हैं, वैसे ही उसकी दृष्टि पड़ते ही समस्त भेदभाव विनष्ट हो जाता है। फिर जाग्रत तथा स्वप्न-इन दोनों अवस्थाओं में जो विपरीत और असत्य ज्ञान उत्पन्न होते हैं, वे दोनों अव्यक्त यानी मूल अज्ञान में लुप्त हो जाते हैं और फिर ब्रह्मबोध की वृद्धि के कारण वह मूल अज्ञान भी घटता-घटता अन्ततः पूर्ण बोध में समा जाता है। |
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