ज्ञानेश्वरी पृ. 776

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

हे धनंजय! एकजात सम-अवस्था के कारण उस व्यक्ति के लिये कोई ऐसी चीज रह ही नहीं जाती, जिसके कारण वह यह कह सकता हो कि अमुक व्यक्ति मेरा दुश्मन है अथवा अमुक व्यक्ति मेरा सुहृद् है। सिर्फ यही नहीं यदि किसी कारण से उसके मुँह से ‘मेरा’ शब्द निकल भी जाय तो भी उसके सम्मुख द्वैत का भाव रह ही नहीं जाता; कारण कि वह एकमात्र अपनी सत्ता से एक-स्वरूप हो चुका होता है। हे पाण्डुसुत! इस प्रकार वह सिर्फ एकभाव से समस्त जगत् को भर देता है और इसीलिये संकुचित वृत्ति की ममता कभी उसे स्पर्श भी नहीं करती और वह उसका पूर्णतया त्याग कर देता है। जिस समय इस प्रकार यह योद्धा अपने सारे वैरियों का उन्मूलन कर डालता है तथा सम्पूर्ण मायिक प्रसार का भी अवसान कर देता है, उस समय उसका योगरूपी अश्व स्वतः स्थिर हो जाता है। अपने शरीर पर धारण किये हुए वैराग्यरूपी कवच को भी वह कुछ शिथिल कर देता है। वह अपना ध्यानरूपी शस्त्र भी रख देता है। उस समय उसके सम्मुख आत्मा के सिवा और कुछ भी नहीं रह जाता और इसीलिये वह वृत्ति भी रुक जाती है। रसायन औषध अपना समस्त काम तो ठीक तरह से करती है; किन्तु व्याधिग्रस्त व्यक्ति उसका सेवन करता है, इसलिये वह स्वयं भी समाप्त हो जाती है। इस सम्बन्ध में भी ठीक वही बात लागू होती है। जैसे रुकने का स्थान देखकर तीव्रगति से आगे बढ़ने वाले पैर भी एकदम से रुक जाते हैं, ठीक वैसे ही ब्रह्म का सान्निघ्य हो जाने के कारण उसके अभ्यास का वेग भी कम हो जाता है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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