ज्ञानेश्वरी पृ. 772

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस: ।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित: ॥52॥

संसार की भीड़ वाली बस्ती छोड़कर वह मनुष्य एकमात्र अपने देह के अवयवों की संगति में ही वन में निवास करता है। शम-दम इत्यादि के ही संग उसके सारे खेल होते हैं। मौन ही उसका भाषण होता है तथा नित्य गुरुवचनों के चिन्तन में रत रहने के कारण उसे समय का जरा-सा भी ध्यान नहीं जाता। भोजन करने के समय वह यह नहीं सोचता कि इससे मेरे अंग बलवान् हों, मेरी भूख शान्त हो और मेरी जिह्वा को ही कुछ स्वाद मिले। मिताहार (अल्पाहार) से उसे जो सन्तोष प्राप्त होता है उसकी माप ही नहीं की जा सकती। वह यह विचार कर अत्यल्प आहार ग्रहण करता है कि खाये हुए अन्न की उष्णता से मेरे क्षीण प्राण बचे रहें। जैसे अपने पति के सिवा किसी दूसरे पुरुष के इच्छा दिखलाने पर कुलांगना उसकी ओर स्वप्न में भी प्रवृत नहीं होती ठीक वैसे ही वह भी निद्रा तथा आलस्य के अधीन नहीं होता। साष्टांग नमन करने के समय तो उसका शरीर जमीन को निश्चितरूप से स्पर्श करता है, पर उस नमन प्रसंग के अलावा वह कभी जमीन पर लेटने का अविचार ही नहीं करता। वह अपने हाथ-पैर का प्रयोग सिर्फ उतना ही करता है जितना उसके शरीर के लिये आवश्यक होता है।

आशय यह है कि वह अपने शरीर का बाह्याभ्यन्तर सब कुछ अपने ही अधीन रखता है; और हे वीर शिरोमणि! वह अपने अन्तःकरण की वृत्ति को मन की चौखट भी नहीं देखने देता, तो फिर उस चौखट को लाँघकर उसके मन तक पहुँचने का कोई सवाल ही नहीं उठता। फिर भला ऐसी स्थिति में मन के विचार कहने का अवसर ही कहाँ रह जाता है? इस प्रकार वह तन, वाणी तथा मन इत्यादि अगल-बगल के इन समस्त पदार्थों पर विजय प्राप्त करे ध्यानरूपी आकाश पर ही हाथ डालता है। गुरु के उपदेश से उसका जो आत्मबोध जाग्रत् हो जाता है, उसके सम्बन्ध का अपना निश्चय वह अनवरत दर्पण की भाँति अपने सम्मुख रखकर उसे देखा करता है। यह ठीक है कि वह स्वयं ध्याता (ध्यान करने वाला) होता है, पर उसके अन्तःकरण की वृत्ति में ध्यान भी ध्येय में मिलकर उसके साथ एकाकार हो जाता है। हे पाण्डुसुत! उसके ध्यान करने की इस रीति को तुम अपने ध्यान में रखो। फिर जिस समय तक ध्येय, ध्यान और ध्याता-ये तीनों मिलकर एकाकार नहीं हो जाता, उस समय तक उसका ध्यान निरन्तर चलता रहता है। यही कारण है कि इस प्रकार का मोक्ष आत्मज्ञान में दक्ष हो जाता है; पर उसके द्वारा ये समस्त बातें इसी कारण होती हैं कि वह योगाभ्यास को अपनी और सब बातों से आगे रखता और महत्त्व देता है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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