श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
जो पुरुष अपने हिस्से में आने वाले कर्मों को छोड़ देते हैं और उसके द्वारा कर्मातीत अवस्था को प्राप्त करना चाहते हैं; परन्तु केवल कर्मेन्द्रिय प्रवृत्ति का निरोध करके उनके द्वारा कर्म-त्याग होता नहीं, क्योंकि उनके अन्तःकरण में कर्तव्य बुद्धि रहती है, ऐसा होते हुए भी वे बाह्यान्तर कर्मों के त्याग का आडम्बर बनाये रखते हैं, यह सचमुच दरिद्रता है, ऐसा तुम जानो। अर्जुन, ऐसे लोग सचमुच विषयासक्त हैं, यह निःसंशय समझ लो। हे धनुर्धर! अब मैं तुम्हें प्रसंगानुसार सब प्रकार की आशाओं और इच्छाओं से मुक्त मनुष्यों के लक्षण बतलाता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो।[1]
जिसका अन्तःकरण दृढ़ होता है, जो परमात्मा के स्वरूप में मिलकर एकीकृत हो जाता है, किन्तु फिर भी जो सामान्य संसारी लोगों की तरह बाहरी व्यवहारों का निर्वहन करता है, जो अपनी इन्द्रियों को आदेश (आज्ञा) नहीं देता और विषय बाँधेंगे, इस तरह का भय उसे होता नहीं, यदि कर्मेन्द्रिय कर्म करते हों तो भी जो पुरुष उनको रोकता नहीं और जो अपने सामने उपस्थित समस्त विहित कर्मों को सम्पादित करता रहता है, अर्थात् कर्मों का अनादर करता नहीं, वह कर्मों के विकारों से लिप्त नहीं होता। वह कभी कामनाओं के अधीन नहीं होता। मोह का मल (अविवेकरूपी मल) उसे कभी नहीं लगता। जैसे कमल का पत्ता जल में रहकर भी जल से नहीं भींगता, ठीक वैसे ही वह भी निर्लिप्त रहकर समस्त लौकिक व्यवहारों का निर्वहन करता रहता है और देखने में सामान्य संसारी की ही भाँति प्रतीत होता है। जैसे जल के सम्पर्क से सूर्य का बिम्ब पृथ्वी की वस्तुओं की ही भाँति दिखायी पड़ता है, वैसे ही वह सामान्य दृष्टि से देखने पर सामान्य मनुष्यों की ही भाँति दिखायी पड़ता है। पर यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो उसकी सच्ची स्थिति जानी ही नहीं जा सकती। जो मनुष्य ऐसे लक्षणों से युक्त हो, उसी को आशापाश से मुक्त जानना चाहिये। हे अर्जुन! ऐसे ही मुक्त पुरुष को योगी कहा जाता है। इसीलिये मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम भी इसी प्रकार के योगी बनो। तुम अपने मन का नियमन करो। अन्तःकरण में निश्चल और शान्त हो जाओ और तब कर्मेन्द्रियों को भले ही विषयों में सुखपूर्वक विचरण के लिये स्वतन्त्र छोड़ दो। फिर देखो, तुम्हें उनके द्वारा बाधा पहुँचाने का भय लेशमात्र भी न रह जायगा।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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