ज्ञानेश्वरी पृ. 769

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥50॥

जिस प्रकार सूर्योदय होते ही अन्धकार नष्ट हो जाता है अथवा कपूर भी दीपक के संसर्ग से दीपक का रूप धारण कर लेता है अथवा लवण भी जल का स्पर्श होते जल का रूप धारण कर लेता है अथवा सुषुप्त व्यक्ति के जागने पर निद्रा तथा स्वप्न दोनों का ही नाश हो जाता है और वह तत्क्षण चेतनायुक्त हो जाता है, ठीक उसी प्रकार गुरुवचन श्रवण करते ही भाग्यवश जिसकी द्वैत बुद्धि का क्षय हो जाता है और जिसे ऐक्यरूप आत्मप्रतीति में विश्राम प्राप्त होता है, उसके बारे में क्या कभी कोई यह कह सकता है कि उस व्यक्ति के लिये अभी और भी कुछ कर्तव्य अवशिष्ट रह गया है? क्या कभी आकाश भी उत्पन्न अथवा नष्ट हो सकता है? इसीलिये निर्विवादरूप से यह बात भी कही जा सकती है कि ऐसे व्यक्ति के लिये कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं रह जाता; पर यह बात हरेक व्यक्ति के विषय में तत्क्षण ही नहीं हो जाती।

अपने श्रवणेन्द्रिय तथा गुरुवचन का संयोग होते ही हर कोई वस्तुस्वरूप यानी आत्मस्वरूप की एकदम से सिद्धि नहीं कर सकता; कारण कि सामान्यरूप से विहित कर्म के आचरण की आग से यदि काम्य तथा निषिद्ध कर्मों का ईंधन प्रज्वलित कर उसमें रजोगुण तथा तमोगुण इन दोनों ही गुणों को जलाकर भस्म कर दिये जायँ, धन-सम्पत्ति, पुत्र और स्वर्ग-सुख इत्यादि का लोभ यदि उसी प्रकार पूर्णतया अपने वश में कर लिया जाय, जिस प्रकार कोई दास वश में किया जाता है, चतुर्दिक् स्वेच्छानुसार दौड़ लगाने वाली और विषयरूपी मन से मलीन इन्द्रियाँ यदि निग्रहरूपी तीर्थ में धोकर निर्मल कर ली गयी हों तथा स्वधर्माचरण का फल यदि ईश्वर को समर्पित करके अटल वैराग्य प्राप्त कर लिया गया हो और इस प्रकार यदि वह समस्त सामग्री इकट्ठी कर ली गयी हो जिसकी आत्म साक्षात्कार के समय ज्ञानोत्कर्ष के लिये आवश्यकता होती है और ऐसे ही अवसर पर यदि सद्गुरु से भेंट हो जाय और वे निःसंकोच स्पष्ट रूप से आत्मबोध का उपदेश करें, तो भी हमें यह बात अवश्य सोचनी चाहिये कि क्या दवा सेवन करते ही हमारे देह की समस्त व्याधियाँ सद्यः दूर हो जाती हैं और हमारा देह बिल्कुल व्याधिमुक्त होकर स्वस्थ हो जाता है? अथवा क्या सूर्योदय होते ही कभी मध्याह्न हो सकता है?

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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