श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
मनुष्य शुद्ध सत्त्व होकर शास्त्र-ज्ञान के बल से अथवा अपने ध्यान के सहयोग से ईश्वर तत्त्व के साथ संदेहरहित बुद्धि से समरस हो जाय तो इसी को ‘विज्ञान’ नामक आठवाँ गुण कहते हैं। यह आठवाँ गुण भी उन कर्मों में रहता है। नवें गुण ‘आस्तिक्य’ का स्वरूप यह है कि शास्त्रों ने जितने मार्गों को उचित बतलाया है, उनमें से हरेक मार्ग को उसी प्रकार ठीक और आदरणीय समझा जाय, जिस प्रकार प्रजा उस हरेक चीज को, जिस पर राजा का नाम अंकित होता है, चलनसार सिक्के के रूप में स्वीकार कर लेती है; और यह आस्तिक्य नाम का नवाँ गुण भी उन कर्मों में होता है। सारांश यह कि जिन कर्मों में ये नौ गुण विद्यमान होते हैं, वही कर्म अच्छे और ठीक होते हैं। इस प्रकार शम इत्यादि नौ गुणों के रहने के कारण जो कर्म स्वभावतः दोषरहित होते हैं, उन्हीं को ब्राह्मणों के स्वाभाविक कर्म जानना चाहिये। जिस व्यक्ति हो इन नौ रत्नों का हार प्राप्त हो जाता है, वह व्यक्ति नौ गुणों का रत्नाकर (समुद्र) ही हो जाता है। जैसे अपने देह में से बिना कुछ भी निकाले अथवा पृथक् किये हुए सूर्य प्रकाश धारण करता है अथवा चम्पा का वृक्ष जैसे स्वयं अपनी कलियों से ही सुशोभित रहता है, चन्द्रमा जैसे अपनी चाँदनी से ही प्रकाशमान रहता है अथवा चन्दन जैसे स्वयं अपनी सुगन्ध से ही सुवासित रहता है, ठीक वैसे ही इन नौ गुणरूपी रत्नों से जड़ा हुआ यह नग ब्राह्मणों का निर्मल आभूषण है और ब्राह्मणों का देह यह आभूषण उतारकर नग्न होने का कृत्य कभी नहीं करता। हे धनंजय! अब तुम यह ध्यानर्पूवक सुनो कि क्षत्रियों के उचित कर्म कौन-से हैं।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (833-855)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |