श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
अपेय वस्तुओं को पीने से, अखाद्य सामग्रियों का सेवन करने से, व्यभिचारिणी स्त्रियों की संगत करने से जो सुख मिलता है अथवा दूसरों का घात करके, दूसरों का द्रव्य अपहृत करके और भाटों के मुख से कृति गान सुनकर जो सुख मिलता है, आलस्य से जिस सुख का पोषण होता है, जो सुख निद्रा में दिखलायी पड़ता है और जिस सुख के आरम्भ तथा अन्त में जीव को अपने सन्मार्ग के विषय में भ्रम हो जाता है तथा वह अनुचित मार्ग में लग जाता है, हे पार्थ! वही सुख पूर्णरूप से तामस कहलाता है; परन्तु मैं इस विषय का विशेष विस्तार नहीं करता, कारण कि इसकी कहानी एकदम निन्द्य है। इस प्रकार जो सुख का मूल कारण कर्मफल है, वह भी कर्मभेद के अनुसार तीन प्रकार का हो गया है और उसका वर्णन मैंने तुम्हारे समक्ष शास्त्रीय ढंग से कर दिया है। अब इस जगत में छोटी-बड़ी समस्त चीजों में कर्ता, कर्म और कर्मफल की त्रिपुटी के अलावा और कुछ भी नहीं है। हे किरीटी! इस त्रिपुटी में तीनों गुण ठीक उसी प्रकार ओत-प्रोत रहते हैं, जिस प्रकार वस्त्र में तन्तु बुने होते हैं।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (806-812)
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