श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
यदि चक्रवाक पक्षियों के युग्म को एक-दूसरे से पृथक् कर दिया जाय, गौ के सामने से बछड़े को हटा लिया जाय अथवा किसी भिक्षुक को परोसी गयी भोजन की थाली के सामने से उठा दिया जाय अथवा यदि माता का इकलौता बेटा मृत्यु के द्वारा उससे छीन लिया जाय, मत्स्य को पानी से बाहर कर दिया जाय तो उस समय उनको जो अपार दुःख होता है, हे पार्थ! ठीक वैसा ही दुःख इन्द्रियों को विषयों का घर त्यागते समय होता है; पर वह दुःख भी पूर्ण विरक्ति के साथ सहन करना पड़ता है। इस प्रकार जिस सुख के शुरुआत में तो बहुत दुःख सहने पड़ते हैं, परन्तु अन्त में उसी प्रकार मोक्ष-सुधा की उपलब्धि होती है, जिस प्रकार क्षीरसिन्धु का मन्थन करते समय उसमें से अमृत की उपलब्धि हुई थी। सर्वप्रथम उत्पन्न होने वाले इस वैराग्यरूपी कालकूट नामक विष को यदि धैर्यरूपी शंकर निगल जाय, तो फिर जिस सुख में ज्ञानामृत की प्राप्ति का उत्सव मनाने की संधि मिलती है, उसी का नाम सात्त्विक धृति है। जिस समय द्राक्षा (अंगूर) कच्ची और हरा रहता है, उस समय उसकी खटास जिह्वा को कैसी अटपटी लगती है! पर वही द्राक्षा जिस समय ठीक तरह से पक जाता है, उस समय उसमें कितना अधिक माधुर्य आ जाता है! इसी प्रकार जब ये वैराग्य इत्यादि भाव आत्मज्ञानरूपी प्रकाश से पूर्णता को प्राप्त होते हैं, तब इन्हीं के साथ समस्त मायाजन्य नामरूपात्मक द्वैत भी समाप्त हो जाता है। उस समय बुद्धि भी आत्मा के साथ मिलकर ठीक वैसे ही एकरस हो जाती है, जैसे समुद्र के संग मिलने पर गंगा हो जाती है और तब अद्वैतानन्द की खान स्वतः खुल जाती है। इस प्रकार के जिस सुख का मूल वैराग्य में है, पर जिसका अवसान आत्मानुभव के आनन्द में होता है उसी सुख का नाम सात्त्विक है।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (778-793)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |