श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
जैसे कभी अग्नि का परित्याग उष्णता नहीं करती, अथवा अच्छी जाति का सर्प बिना अपना बदला चुकाये नहीं मानता; जैसे संसार का वैरी भय कभी नष्ट नहीं होता अथवा जैसे काल किसी समय शरीर को नहीं छोड़ता, वैसे ही तामस जीव में मद भी अपने लिये अटल पद प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार ये निद्रा इत्यादि पंचदोष जिस धृति से तामस जीव में अपना डेरा डाले रहते हैं, उसी धृति को तामस समझना चाहिये।” यही बात जगत् के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कही थी। तदनन्तर, भगवान् ने फिर कहा-“सूर्य के सहयोग से ही रास्ता साफ-साफ दृष्टिगोचर होता है और पैर उस रास्ते से चलते हैं; पर फिर भी चलने वाले के धैर्य से ही चलने का काम होता है। इसी प्रकार बुद्धि के सहयोग से कर्म दृष्टिगत होते हैं और इन्द्रियाँ इत्यादि साधनसमूह वे कर्म करते हैं; पर फिर भी उन कर्मों को सम्पन्न होने के लिये जिस धैर्य (धृति) की आवश्यकता होती है, उसके तीन प्रकार मैंने तुमको स्पष्ट रूप से बतला दिये हैं। जब इस प्रकार त्रिविध कर्मों की उत्पत्ति होती है, तब उन कर्मों में जो सुख नाम का फल लगता है, वह भी त्रिविध ही होता है और इसका प्रमुख कारण यही है कि वे समस्त फल एकमात्र कर्मानुसार ही उत्पन्न होते हैं। अत: अब मैं तुम्हें निर्दोष शब्दों में यह स्पष्ट रूप से बतलाता हूँ कि ये सुखरूपी फल किस तरह तीन भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। पर शब्दों के चोखेपन की ही योजना क्यों की जाय? कारण कि यदि यह बात शब्दों के द्वारा समझी और समझायी जाय तो शब्दों में कर्णरूपी हाथों की मैल लग ही जाती है। अत: उस अन्तरंग की सहायता से ये बातें ध्यानपूर्वक सुनो, जिस अन्तरंग का निरोध करने से श्रोता के कान भी बहरे हो जाते हैं।” इतना कहकर श्रीकृष्णदेव ने त्रिविध सुखों का विषय आरम्भ किया। अब मैं उसी वृत्तान्त का यहाँ वर्णन करता हूँ![1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (749-771)
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