ज्ञानेश्वरी पृ. 727

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदत: ।
प्रोच्यते गुणसङ्‌ख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥19॥

पर अभी मैंने जो ज्ञान, कर्म और कर्ता की चर्चा की है, वे त्रिगुणों के कारण तीन प्रकार के होते हैं। अत: हे धनंजय! ज्ञान, कर्म और कर्ता पर भी विश्वास नहीं करना चाहिये; कारण कि त्रिगुणों में से दो गुण रज और तम तो बन्धनकारक होते हैं और सिर्फ तीसरा सत्त्वगुण ही मोक्ष प्रदान करने में समर्थ होता है। अब मैं इन त्रिगुणों के लक्षण इस प्रकार पृथक्-पृथक् करके बतलाता हूँ जिससे तुम सत्त्वगुण को भली-भाँति पहचान लो। सांख्यशास्त्र में इस गुण-भेद का स्पष्टीकरण अच्छी तरह किया गया है।

जो सांख्यशास्त्र विचार का क्षीरसागर है, जो आत्मबोधरूपी कुमुदिनी को प्रस्फुटित कराने वाला चन्द्रमा है, जो ज्ञान की दृष्टि देने वाले शास्त्रों का राजा है अथवा जो अहर्निश की तरह एक में सम्पृक्त प्रकृति तथा पुरुष को स्पष्ट रूप से पृथक्-पृथक् दिखलाने वाला प्रचण्ड मार्तण्ड ही है जिस शास्त्र के सहयोग से अपरिमित अज्ञानराशि चौबीस तत्त्वों की माप-तौल करके परम तत्त्व ब्रह्म का अखण्ड आनन्द भोगा जा सकता है, हे अर्जुन! उस सांख्यशास्त्र ने जो कुछ कहा है, वह गुण-भेद का आख्यान मैं तुम्हें बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।

जिस दृष्टि से अपने अंग की सामर्थ्य से इन त्रिगुणों ने त्रिविधता के रंग से सम्पूर्ण दृश्य-जगत् को रँगा है, उस दृष्टि से सत्त्व, रज और तम का महत्त्व सिर्फ इतना ही है कि ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त सभी इन गुणों के कारण त्रिविध हो गये हैं। पर मैं सर्वप्रथम तुमको उस ज्ञान के सम्बन्ध में बतलाता हूँ जिसने इस सम्पूर्ण विश्व का भेदन किया है और इसीलिये जो स्वयं भी गुण-भेद के चक्कर में पड़ गया है। बात यह है कि जब दृष्टि स्वच्छ होती है, तब प्रत्येक वस्तु स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। इसी प्रकार जब शुद्ध ज्ञान उपलब्ध होता है, तब सब कुछ शुद्ध हो जाता है। कैवल्य गुणनिधान भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि अब मैं सात्त्विक ज्ञान का वर्णन करता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (517-528)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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