ज्ञानेश्वरी पृ. 712

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


शरीरवाङ्‌मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नर: ।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पंचैते तस्य हेतव: ॥15॥

जिस समय वसन्त-ऋतु का आगमन होता है, उस समय वह नूतन पल्लवों की उत्पत्ति का हेतु होता है। फिर इन्हीं पल्लवों से फूल के गुच्छे तथा उनसे फलों की उत्पत्ति होती है अथवा जिस समय पावस-ऋतु का पदार्पण होता है उस समय वह अपने संग बहुत-से मेघ लाती है। वृष्टि उन मेघों के कारण होती है और उसके कारण धान्य उत्पन्न होता है तथा उससे सुखभोग प्राप्त होता है। अरुण का प्रसव पूर्व दिशा करती है और वह अरुण सूर्योदय का कारण होता है तथा सूर्य के कारण दिन निकलता है। ठीक इसी प्रकार हे पाण्डव! मन भी कर्मों के संकल्प का हेतु होता है। इन्हीं संकल्पों से वाणीरूपी दीपक प्रज्वलित होता है और जब वह दीपक समस्त कर्म समुदाय के मार्ग प्रकाशित करता है, तभी कर्ता कर्म करने के व्यापार में प्रवृत्त होता है। इन्हीं व्यापारों में शरीर इत्यादि समुदाय शरीरादि के हेतु होते हैं। जैसे लोहे की चीजें बनाने के समस्त काम लोहे के ही घन से होते हैं और जैसे सूत के तानें में सूत के ही बाने पड़ने से वे सूत समुदाय ही वस्त्र का रूप धारण कर लेते हैं, ठीक वैसे ही जिन कारणों का आचरण मन, वाणी और शरीर के द्वारा होता है? वे कर्म ही मन, वाणी और शरीर के हेतु होते हैं। रत्नजटित आभूषण रत्नों से ही बनते हैं; इस सम्बन्ध में भी ठीक वही बात लागू होती है। अब यदि कोई यह पूछे कि यदि शरीर इत्यादि ही कारण हैं तो फिर वही हेतु किस प्रकार बन जाते हैं, तो वे अपने इस आक्षेप का निराकरण भी कर लें। जैसे सूर्य ही सूर्य के प्रकाश का हेतु भी है और कारण भी है अथवा ईक्षुकांड जैसे ईक्षु की वृद्धि के हेतु भी होते हैं तथा कारण भी होते हैं अथवा यदि वाग्-देवता की स्तुति करनी हो तो उसके लिये वाणी को ही श्रम करना पड़ता है अथवा वेदों का महिमा-गान जैसे स्वयं वेदों से ही हो सकता है, ठीक वैसे ही यद्यपि हम यह बात निर्विवादरूप से जानते हैं कि शरीर इत्यादि ही कर्मों के कारण होते हैं, तो भी यह बात मिथ्या नहीं है कि वही उन कर्मों के हेतु भी होते हैं।

Next.png

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः