श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
अब पूर्व और पश्चिम दिशा से प्रवहमान प्रवाहों का मिलन होने पर जैसे एक ही जल भिन्न-भिन्न नदों तथा नदियों के रूप में भासमान होता है, वैसे ही जो अखण्ड एकस्वरूप क्रिया शक्ति वायु में विद्यमान रहती है, वही भिन्न-भिन्न जगहों में प्राप्त होने के कारण पृथक्-पृथक् स्वरूपों वाली जान पड़ती है। जिस समय वह शक्ति वाणी में आती है, उस समय मनुष्य बोलने लगता है; जिस समय वह हाथों में प्रकट होती है, उस समय उससे आदान-प्रदान की क्रिया होने लगती है; जिस समय वह पैरों में पदार्पण करती है, उस समय उससे चलना-फिरना होने लगता है और जिस समय वह मल-मूत्र के द्वार में प्रवेश करती है, उस समय उससे मल-मूत्र निकलने लगता है। फिर वही वायु जिस समय नाभि से हृदयपर्यन्त ओंकार को प्रकट करने लगती है, उस समय उसे ‘प्राणवायु’ नाम से सम्बोधित करते हैं। फिर वही शक्ति जिस समय ऊर्ध्व प्रान्त में प्रवेश करने लगती है, उस समय उसे ‘उदानवायु’ नाम से पुकारते हैं। जिस समय वही शक्ति अधोद्वार से प्रवाहित होने लगती है, उस समय उसे ‘अपानवायु’ कहते हैं और जिस समय वही शक्ति पूरे शरीर में व्याप्त रहती है, उस समय वह ‘व्यानवायु’ कहलाती है। यही शक्ति खाये गये अन्न के रस को शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचाती है तथा शरीर के अन्तरंग प्रान्त में अनवरत व्याप्त रहती है। इस प्रकार चतुर्दिक् घूमकर वह क्रिया शक्ति अन्ततः नाभिप्रदेश में स्थिर होती है और उस समय वह ‘समानवायु’ के नाम से जानी जाती है। जम्हाई, छींक, डँकार इत्यादि रूपों में होने वाली वायु की क्रियाओं के नाम नाग, कूर्म तथा कृकर इत्यादि हैं। |
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