ज्ञानेश्वरी पृ. 707

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग

अर्जुन ने यह सुनकर अपना सिर झुका लिया और कहा-“हे भगवन! आप अत्यन्त उदार हैं, दाता हैं। यह बात आप अच्छी तरह से समझ ही गये हैं कि यद्यपि मैं आपके सन्निकट ही रहता हूँ, तो भी आपके पृथक् रहने के कारण मैं बहुत व्याकुल हो गया हूँ और यही कारण है कि अब मैं आपके साथ पूर्णरूप से एकत्व अथवा समरसता पाने के लिये उत्सुक हो रहा हूँ। मेरी इस प्रकार की दशा होने पर यदि आप प्रेमपूर्वक कुछ विनोद न कर रहे हों, तो फिर आप बारम्बार मेरी जीव-दशा का स्मरण क्यों करा देते हैं?” तब भगवान् ने कहा-“अरे पगले! अभी तक यह विषय तुम्हारे बुद्धि में नहीं घुसा। क्या चन्द्र और उसकी चन्द्रिका में कभी कोई भेद होता है! इसके अलावा मैं एक और बात बतलाता हूँ कि तुम्हें वह समरसता दिखाने में तथा तुम्हें उसका अनुभव करने में मुझे बहुत भय हो रहा है और तुम्हारे नाराज होनपर मुझमें तुम्हारी नाराजगी सहन करने की जो सामर्थ्य आती है, उसका भी एकमात्र कारण यही है कि तुम्हारे प्रति मेरे मन में अत्यधिक प्रेम है और जब तक परस्पर प्रेम के लक्षण बने हुए हैं, तब तक हम दोनों का व्यक्ति-भेद भी अवश्य ही बना रहेगा। इसीलिये अब इस विषय की अत्यधिक चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है। हे पाण्डुपुत्र! अब तुम यह सुनो कि आत्मा से कर्म किस प्रकार भिन्न होते हैं।”

यह सुनकर अर्जुन ने कहा-“हे देव! मेरे चित्त में इस समय जो प्रश्न उठ रहा था, उसकी प्रस्तावना करके आपने बहुत ही सुन्दर काम किया है। सम्पूर्ण कर्मों के मूल बीज जो कारण-पंचक हैं, उनके सम्बन्ध में बतलाने का वचन क्या आप मुझे नहीं दे चुके हैं? और आपने जो यह कहा कि आत्मा का इन कर्मों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, सो आपके द्वारा उसका विवेचन होना भी अभी शेष है।”

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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