श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग
अर्जुन ने यह सुनकर अपना सिर झुका लिया और कहा-“हे भगवन! आप अत्यन्त उदार हैं, दाता हैं। यह बात आप अच्छी तरह से समझ ही गये हैं कि यद्यपि मैं आपके सन्निकट ही रहता हूँ, तो भी आपके पृथक् रहने के कारण मैं बहुत व्याकुल हो गया हूँ और यही कारण है कि अब मैं आपके साथ पूर्णरूप से एकत्व अथवा समरसता पाने के लिये उत्सुक हो रहा हूँ। मेरी इस प्रकार की दशा होने पर यदि आप प्रेमपूर्वक कुछ विनोद न कर रहे हों, तो फिर आप बारम्बार मेरी जीव-दशा का स्मरण क्यों करा देते हैं?” तब भगवान् ने कहा-“अरे पगले! अभी तक यह विषय तुम्हारे बुद्धि में नहीं घुसा। क्या चन्द्र और उसकी चन्द्रिका में कभी कोई भेद होता है! इसके अलावा मैं एक और बात बतलाता हूँ कि तुम्हें वह समरसता दिखाने में तथा तुम्हें उसका अनुभव करने में मुझे बहुत भय हो रहा है और तुम्हारे नाराज होनपर मुझमें तुम्हारी नाराजगी सहन करने की जो सामर्थ्य आती है, उसका भी एकमात्र कारण यही है कि तुम्हारे प्रति मेरे मन में अत्यधिक प्रेम है और जब तक परस्पर प्रेम के लक्षण बने हुए हैं, तब तक हम दोनों का व्यक्ति-भेद भी अवश्य ही बना रहेगा। इसीलिये अब इस विषय की अत्यधिक चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है। हे पाण्डुपुत्र! अब तुम यह सुनो कि आत्मा से कर्म किस प्रकार भिन्न होते हैं।” यह सुनकर अर्जुन ने कहा-“हे देव! मेरे चित्त में इस समय जो प्रश्न उठ रहा था, उसकी प्रस्तावना करके आपने बहुत ही सुन्दर काम किया है। सम्पूर्ण कर्मों के मूल बीज जो कारण-पंचक हैं, उनके सम्बन्ध में बतलाने का वचन क्या आप मुझे नहीं दे चुके हैं? और आपने जो यह कहा कि आत्मा का इन कर्मों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, सो आपके द्वारा उसका विवेचन होना भी अभी शेष है।” |
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