ज्ञानेश्वरी पृ. 705

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

हे वीर शिरोमणि! इस प्रकार जो लोग ज्ञानप्रधान संन्यास ग्रहण करते हैं, वास्तव में वे ही लोग फलभोग की वासनाओं का नाश करते हैं। इस प्रकार के संन्यास के कारण जब आत्मस्वरूप में दृष्टि विस्तृत होती है, तब भला यह भास हो ही कैसे सकता है कि कर्म कोई स्वतन्त्र अथवा भिन्न वस्तु है? जिस समय दीवार ही धराशायी हो जाती है, उस समय उस पर निर्मित चित्र भी मिट्टी हो जाते हैं। जिस समय रात व्यतीत हो जाती है, उस समय अन्धकार कहीं नामोनिशान नहीं रह जाता। जिस समय मूल वस्तु का स्वरूप ही विनष्ट हो गया, उस समय फिर भला उसकी छाया किस जगह पड़ सकती है? यदि दर्पण ही न हो तो मुख का प्रतिबिम्ब कैसे और किस में पड़ सकता है? जब निद्रा भंग हो गयी, तब स्वप्न की घटना कहाँ से घट सकती है? और जहाँ स्वप्न का अभाव है, वहाँ भला सत्यासत्य का प्रश्न किस प्रकार खड़ा हो सकता है?

ठीक इसी प्रकार ऐसे ज्ञानप्रधान संन्यास से जब मूल अविद्या के ही जीवन का अवसान हो जाता है अर्थात् अज्ञान का नाश हो जाता है तो फिर उसका कार्य जो कर्मफल है उसका आदान-प्रदान किस प्रकार हो सकता है? इसीलिये कर्म की मात्रा कभी संन्यासी पर प्रयुक्त हो ही नहीं सकती। पर जिस समय तक मनुष्य के देह में अविद्या विद्यमान रहती है, उस समय तक आत्मा कर्तृत्व के अभिमान से शुभ-अशुभ समस्त प्रकार के कर्मों के पीछे लगी रहती है और जब तक दृष्टि पर भेदभाव की छाप लगी रहती है तब तक हे सुविज्ञ, आत्मा तथा कर्म में भेदभाव बना ही रहेगा। इस प्रकार का भेदभाव पूर्व और पश्चिम दिशा में होता है अथवा आकाश और मेघ, सूर्य और मृगजल अथवा पृथ्वी और वायु में जिस प्रकार की भिन्नता दृष्टिगोचर होती है अथवा नदी के जल में पाषाणों और चट्टानों के डूबे रहने पर भी जिस प्रकार उन दोनों में आकाश और पाताल का अन्तर रहता है; जल को आच्छादित करने वाली सेवार जिस प्रकार जल से एकदम भिन्न होती है अथवा दीपक से उत्पन्न होने वाले काजल को जिस प्रकार कभी दीपक नाम से पुकारा नहीं जा सकता, चन्द्रमा पर दृष्टिगत होने वाला धब्बा अथवा कलंक जिस प्रकार चन्द्र के संग मिलकर भी एकरूप नहीं हो सकता; दृष्टि तथा आँखों में जिस प्रकार महान् अन्तर होता है, रास्ता और राही अथवा प्रवाह तथा उसमें प्रवहमान व्यक्ति अथवा दर्पण और उसमें अपने मुख का प्रतिबिम्ब देखने वाले व्यक्ति में जितना अधिक अन्तर होता है, हे पार्थ! उतना ही अन्तर आत्मा तथा कर्म में है; इस अन्तर का ज्ञान अज्ञान के कारण होता है। जलाशय में स्थित कमल प्रस्फुटित होकर यह संकेत करते हैं कि सूर्योदय हो गया तथा वे कमल भ्रमरों से अपने कमल-मधु की लूट कराते हैं। ठीक इसी प्रकार और ही कारणों से आत्मा के द्वारा होने वाली क्रियाएँ बारम्बार उत्पन्न होती हैं। ये कारण पाँच हैं। अब मैं इन कारणों का वर्णन करता हूँ।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (233-277)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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