श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
स्वाधिकारानुसार स्वभावतः जो कर्म अपने हिस्से में आते हैं सात्त्विक व्यक्ति उन्हीं का विधि-विधानसहित आचरण करते हैं। पर ऐसे व्यक्ति के मन को इस प्रकार के अहंकार की भावना कभी छूती तक नहीं कि मैं इन कर्मों का करने वाला हूँ और साथ ही वह फलाशा को भी तिलांजलि दे बैठता है। हे पार्थ! अपनी माता की अवमानना करना तथा उसके विषय में कामवासना रखना-ये दोनों ही बातें अधोगति का हेतु होती हैं। अत: इन दोनों महापातकों से बचना चाहिये तथा माता की निर्मल मन से सेवा करनी चाहिये। गौ का मुख अपवित्र होता है पर क्या इसी कारण से समग्र गौ को त्यागने योग्य समझना चाहिये? जो फल हमें अत्यधिक प्रिय होते हैं, उनके भी छिलके तथा गुठलियाँ खाने के लायक नहीं होतीं; पर क्या उन्हीं छिलकों आदि के कारण कभी कोई उन फलों को ही फेंक देता है? ठीक इसी प्रकार मैं कर्ता हूँ-एक तो इस बात का अभिमान और दूसरे कर्मफल का लोभ-ये दोनों बातें कर्म में बन्धक तत्त्व हैं। जैसे पिता अपनी कन्या के बारे में कभी अपने मन में कामभावना उत्पन्न होने नहीं देता, वैसे ही यदि ये दोनों बातें भी कभी अपने चित्त में उभड़ने न दी जायँ तो फिर योग्य तथा स्वाभाविक कर्म भी कभी व्यक्ति के लिये दुःख का कारण नहीं हो सकते। ऐसे त्याग को मोक्षरूपी फल उत्पन्न करने वाला सर्वश्रेष्ठ वृक्ष ही जानना चाहिये। संसार में इसी का त्याग का नाम सात्त्विक त्याग है। जैसे बीज को भस्म कर डालने से वृक्ष वंशविहीन हो जाता है, ठीक वैसे ही फलाशा त्याग देने के कारण जिसका कर्म-बन्धकत्व विनष्ट हो जाता है, जिसके रज और तम-ये दोनों ठीक वैसे ही विनष्ट हो चुके होते हैं, जैसे पारस का संसर्ग होते ही लौह की अमंगलजनक कालिमा समाप्त हो जाती है और तब निर्मल सत्त्वगुण के कारण जिसके आत्मज्ञानरूपी नेत्र खुल जाते हैं, उस व्यक्ति की बुद्धि आदि के सामने का यह प्रचंड विश्वभ्रम सन्ध्या समय के मृगजल की तरह स्वतः विनष्ट हो जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति के लिये वह भ्रम आकाश की तरह एकदम अदृश्य हो जाता है अर्थात् कहीं दिखायी नहीं देता है।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (200-211)
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