श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
बात यह है कि कर्माचरण से समस्त दोष मिट जाते हैं, मनुष्य के अधिकार में वृद्धि हो जाती है और उसे तत्क्षण सद्गति भी मिल जाती है। यद्यपि नित्य तथा नैमित्तिक कर्मों को करने में इतने बड़े फल की उपलब्धि होती है, तो भी जैसे मूल नक्षत्र में उत्पन्न होने वाले बालक का त्याग करना पड़ता है, ठीक वैसे ही इन फलों का भी त्याग करना चाहिये। जब वसन्त काल आता है तब आम्रवृक्ष में उस समय तक नये-नये पत्ते उत्पन्न होते रहते हैं, जिस समय तक उसकी एक-एक शाखा फलों से लद नहीं जाती; परन्तु ज्यों ही उन शाखाओं में फल लगने लगते हैं, त्यों ही वह उन फलों को बिना छूए ही अपना समस्त वैभव नीचे फेंकने लगता है। ठीक इसी प्रकार कर्म की मर्यादा का परित्याग न करते हुए नित्य तथा नैमित्तिक कर्मों की ओर ध्यान देना चाहिये और तब उन सबसे उत्पन्न होने वाले फलों को पूर्णतया वमन के सदृश त्याज्य मानना चाहिये। कर्मफल के इसी त्याज्य को ज्ञानीजन त्याग नाम से पुकारते हैं। इस प्रकार त्याग हौर संन्यास का स्वरूप मैंने तुम्हें स्पष्ट रूप से बतला दिया है। जब इस प्रकार का संन्यास होता है, तब काम्य कर्म बन्धनकारक नहीं होते। रही बात निषिद्ध कर्म की तो वे स्वभावतः ही त्याज्य होते हैं। जैसे सिर के कट जाने पर शेष शरीर स्वतः पृथ्वी पर गिर पड़ता है, वैसे ही इन फलों के परित्याग करने से नित्य कर्म भी स्वतः नष्ट हो जाते हैं। फिर जैसे फसल के परिपक्व होने पर पौधों की पत्तियाँ इत्यादि मर जाती हैं और पत्तियों के नष्ट होते ही फसल हाथ आती है, वैसे ही समस्त कर्मों के नष्ट होते ही आत्मज्ञान स्वयं ही खोजता हुआ जीव के सन्निकट आ पहुँचता है। इस युक्ति से जो लोग त्याग और संन्यास-दोनों करते हैं, वे आत्मज्ञान पाने का साधन सम्पादित करते हैं; पर जिनसे इस युक्ति का साधन नहीं बन पाता तथा जो लोग एकमात्र अनुमान अथवा विचार में ही त्याग करते हैं।, उनके द्वारा लेशमात्र भी त्याग नहीं होता और वे दिनोंदिन निरन्तर जाल में उलझते जाते हैं। यदि व्याधि की चिकित्सा के लिये नहीं अपितु यों ही किसी औषधि की योजना कर दी जाय, तो वह खाने पर विषतुल्य होती है और इसके विपरीत यदि अन्न सेवन न किया जाय तो क्या भूखों मरने की नौबत नहीं आ जाती? अत: जो वस्तु त्याग करने योग्य न हो उसका कभी त्याग नहीं करना चाहिये और जो त्याग करने योग्य हो, उसका कभी लोभ नहीं करना चाहिये। त्याग के इस वैशिष्ट्य पर ध्यान न रखकर जो त्याग किया जाता है वह सब बोझस्वरूप ही होता है। जो वैराग्यसम्पन्न होते हैं, उन्हें निषिद्ध (त्याज्य) कर्मों के साथ सर्वत्र संघर्ष ही करना पड़ता है।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (98-134)
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