श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
इसलिये, हे धनंजय! यदि हमारी इन्द्रियाँ स्वतः हमारे अधीन हो जायँ तो इससे अधिक सार्थक बात और क्या हो सकती है। देखो, जैसे कछुआ अपनी ही इच्छानुसार अपने अवयवों को फैलाता है और अपनी इच्छानुसार ही अपने अवयवों को सिकोड़ भी लेता है, ठीक वैसे ही जिसकी इन्द्रियाँ उसके अधीन होती हैं और उसी के आज्ञानुसार ही सब काम करती हैं, उसी को स्थितप्रज्ञ जानना चाहिये। हे अर्जुन! अब मैं पूर्णता को प्राप्त मनुष्य का एक और गूढ़ लक्षण बतलाता हूँ। वह भी ध्यानपूर्वक सुनो।[1]
जिस ब्रह्म-वस्तु के विषय में प्राणीमात्र बेखटक होकर मानो सोये हुए रहते हैं, उस ब्रह्म-वस्तु के विषय में जो अनवरत जागता रहता है और जिन विषयों के लिये समस्त प्राणीमात्र जाग्रत् रहकर यत्नशील रहते हैं, उन विषयों की तरफ से जो अपनी आँखें पूरी तरह से मूँद लेता हैं, वही यथार्थात: समस्त उपाधियों से मुक्त रहता है। हे अर्जुन! वही वास्तव में स्थितप्रज्ञ होता है और वही पूर्णतया मुनीश्वर सिद्ध होता है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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