श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
हे महाराज! संन्यास तथा त्याग-इन दोनों शब्दों से एक ही अर्थ निकलता है। जैसे संघात और संघ-इन दोनों शब्दों से सिर्फ संघात ही सूचित होता है, ठीक वैसे ही मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि त्याग और संन्यास-इन दोनों शब्दों से सिर्फ त्याग ही सूचित होता है। हे भगवन्! यदि इन दोनों शब्दों में अर्थ का कोई भेद हो तो वह आप कृपापूर्वक बतला दें।” यह सुनकर श्रीमुकुन्द ने कहा-“दोनों शब्दों के अर्थों में भेद है; तो भी हे अर्जुन! यह बात मैं अच्छी तरह से समझता हूँ कि तुम्हें त्याग और संन्यास-ये दोनों ही शब्द एकार्थी जान पड़ते हैं। यह एकदम ठीक बात है कि इन दोनों से सिर्फ त्याग ही सूचित होता है; पर इनके अर्थों में भेद होने का एकमात्र कारण यही है कि जब कर्मसर्वथा अपने से पृथक् अथवा दूर कर दिया जाता है, उसी का नाम संन्यास है और कर्मफल की कोई आकांक्षा न रखना ही त्याग कहलाता है। अब मैं यह बतलाता हूँ कि किन-किन कर्मों के फल का त्याग करना चाहिये तथा कौन-से कर्म एकदम त्याग देने चाहिये। तुम भली-भाँति इन बातों की ओर ध्यान दो। जंगलों और पहाड़ों पर अनगिनत वृक्ष स्वतः उगते तथा बढ़ते हैं, पर धान के पौधे अथवा उ़द्यानों के वृक्ष उस प्रकार स्वतः नहीं उगते। बिना जोते-बोये नाना प्रकार की वनस्पतियाँ उगती हैं, पर बिना बीज बोय और रोपाई किये खेतों में धान इस प्रकार स्वतः नहीं हो सकता अथवा शरीर यद्यपि स्वतः उत्पन्न होता है तो भी आभूषण बनवाने के लिये-परिश्रम ही करना पड़ता है अथवा नदी तो स्वतः मिल जाती है, पर कूप-खनन हेतु परिश्रम करना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार नित्य तथा नैमित्तिक कर्म तो स्वाभाविकरूप से होते रहते हैं, पर यदि मन में उनके फल की आशा न रखी जाय तो वे कर्म कामिक नहीं होते और यही कारण है कि बन्धनकारक नहीं होते।”[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (87-97)
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