श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
इस सत्-शब्द के द्वारा असत् यानी अज्ञान से उत्पन्न नाम-रूप वाले जगत की छाप मिट जाती है तथा सत्रूपी सुवर्ण का विशुद्ध स्वरूप व्यक्त होता है। यह सत् कभी काल अथवा स्थल के प्रभाव के कारण परिवर्तित नहीं होता और सदा निजस्वरूप में ही विलास करता है। यह समस्त नाम-रूपों वाला दृश्य जगत् अनित्य है और यही कारण है कि वह सत् में नहीं आ सकता और सिर्फ निजरूप अर्थात् आत्मरूप की प्राप्ति से ही जिस सत्-तत्त्व का ज्ञान होता है, उस सत्-तत्त्व के द्वारा वे समस्त कर्म ऐक्यज्ञान के कारण समरूप हो जाते हैं जो प्रथमतः हो चुके रहते हैं और तब आत्मस्वरूप ब्रह्म दृष्टिगत होने लगता है। अत: ओंकार तथा तत्कार से जो कर्म ब्रह्माकार हो जाते हैं, वे सब पचकर एकदम से सद्रूप हो जाते हैं। इस प्रकार इस सत्-शब्द का अन्तस्थ उपयोग तुम ध्यान में रखो।” यही भगवान् कहते हैं। ये समस्त बातें मैं अपनी तरफ से नहीं कह रहा हूँ। पर यदि इस प्रकार यह बात कही जाय तो भगवान् के विषय में द्वैतभाव का दोष उत्पन्न होता है। अतः यही निश्चय करना चाहिये कि यह समस्त कथन भगवान् का ही है। भगवान् कहते हैं कि अब इस सत्-शब्द का सात्त्विक कर्मों के लिये एक और भी उपकारक प्रयोग होता है। वह भी सचेत होकर सुनो। समस्त लोग अपने-अपने अधिकारानुसार ठीक तरह सत्कर्म का आचरण करते रहते हैं; पर जब कुछ कारणों से वे कर्म किसी अंग से हीन होते हैं, तब जैसे कोई अवयव पीड़ाग्रस्त होने के कारण देह अच्छी तरह से नहीं चलता, अथवा जैसे चक्रहीन रथ की गति अवरुद्ध हो जाती है, ठीक वैसे ही किसी एक गुण के अभाव के कारण सत्कर्म भी असत् हो जाते हैं। |
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