ज्ञानेश्वरी पृ. 660

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग


विधिहीनमस्रष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥13॥

जैसे पशु-पक्षियों के विवाह के लिये काम-वासना के सिवा विवाहकर्म-हेतु अन्य किसी जोशी की आवश्यकता नहीं होती, वैसे ही तामस यज्ञ का मूल कारण भी केवल आग्रह ही होता है। हे पार्थ! यदि कभी ऐसी स्थिति उपस्थित हो जाय कि वायु को खोजने पर भी मार्ग न मिले अथवा मृत्यु को भी मुहूर्त का विचार करने की जरूरत आ पड़े अथवा निषिद्ध वस्तुओं को देखकर धधकती हुई अग्नि भी भयभीत होकर पीछे हट जाय, तभी तामस प्रवृत्ति के व्यक्ति के व्यवहार में भी किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न हो सकती है। हे धनुर्धर! तामस व्यक्ति सदा उच्छृंखल ही होता है। उसे न तो विधि-निषेध की ही चिन्ता सताती है और न मन्त्र इत्यादि की ही उसके लिये कोई बाधा होती है। अन्न पर दृष्टि जाते ही मक्खी कितनी शीघ्रता से आकर उस पर बैठ जाती तथा उसे ग्रहण करने लगती है। तामस व्यक्ति को भी विधि-निषेध का उतना ही विचार होता है, जितना मक्खी को होता है। ब्राह्मण तो विरक्त होते हैं। फिर लोभ के वशीभूत होकर दक्षिणार्थ उनके यज्ञ में भला कौन ब्राह्मण प्रवेश कर सकता है? जैसे अग्नि प्रचण्ड वायु के झोंके में पड़कर खूब भड़क उठती है, वैसे ही वह भी अपने अभिमान के वशीभूत होकर अपना सवस्व उड़ाने लगता है। जैसे किसी निःसन्तान व्यक्ति का लावारिस घर आने-जाने वाले सभी लोग लूटने लगते हैं, वैसे ही इस प्रकार के लोभी व्यक्ति, जिनमें श्रद्धा लेशमात्र भी नहीं होती, आ-आकर उसकी सम्पत्ति लूटने लगते हैं। ऐसी बातें जिस यज्ञ में होती हैं, वह मिथ्या तथा भ्रामक यज्ञ होता है और उसी को लोग तामस यज्ञरूप कहते हैं।”

यही सब बातें लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण ने उस समय कही थीं। तदनन्तर उन्होंने कहा-“हे पार्थ! गंगा का जल सदा एक रूप ही रहता है, पर अलग-अलग स्थानों में प्रवाहित होने के कारण कहीं तो वह गन्दगी बहा ले जाता है और इसलिये एकदम मटमैला हो जाता है तथा कहीं एकदम निर्मल रहता है। ठीक इसी प्रकार तप भी त्रिगुणों के संयोग से तीन प्रकार का होता है। उनमें से एक प्रकार के तप के आचरण से पाप तथा दूसरे से उद्धार होता है। हे ज्ञानवान् अर्जुन! तप के ये त्रिविध भेद किस प्रकार उत्पन्न होते हैं, यदि यह बात जानने की उत्सुकता तुम्हारे मन में हो तो तुम्हें सर्वप्रथम तप का स्वरूप ही समझ लेना चाहिये। अब मैं तुम्हें बतलाता हूँ कि ‘तप’ किसे कहते हैं। इसके उपरान्त मैं तुमको यह भी बतलाऊँगा कि गुणों के योग से उसके भिन्न-भिन्न स्वरूप किस प्रकार होते हैं। जिसे ‘तप’ नाम से पुकारते हैं वह भी शारीरिक, मानसिक और शब्द-भेद से तीन प्रकार का होता है। इन त्रिविध तपों में जो प्रथम शरीरिक तप है, अब उसका स्वरूप ध्यानपूर्वक सुनो। श्रीशंकर अथवा श्रीहरि-इन दोनों में से जो देवता प्रिय हो।”[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (189-201)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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