श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
जैसे मछली लोभवश बिना विचारे काँटें में लगा हुआ मांस निगल जाती है, ठीक वैसे ही ये आसुरी प्रवृत्ति के लोग भी बिना आगा-पीछा सोचे सदा विषय-वासनाओं के चक्कर में पड़े रहते हैं। जिस समय इन्हें अभिलिषित विषय नहीं मिलता‚ उस सयम ये लोग कोये में बन्द रहने वाले रेशम के कीड़े की भाँति बैठे हुए कोरी आशाओं के ही ताने-बाने बुनते रहते हैं और जब वासना की तृप्ति नहीं होती, तब वही वासना द्वेष का रूप धारण कर लेती है। आशय यह कि ऐसे लोगों के लिये काम-क्रोध इत्यादि के अलावा जीवन का अन्य कोई कर्तव्य ही अवशिष्ट नहीं रह जाता है। हे पाण्डव! जैसे चौकी का पहरेदार दिनभर तो इधर-उधर चक्कर लगाता रहता है और रात के समय पहरा देता रहता है तथा दिन अथवा रात में किसी समय वह यह नहीं जानता कि विश्राम कैसा होता है, वैसे ही ये आसुरी लोग भी जब कामवासना के कारण एक बार ऊँचाई पर से नीचे गिरा दिये जाते हैं, तब ये क्रोधरूपी पहाड़ी पर आ गिरते हैं और तब उनमें राग-द्वेष इत्यादि विषयों के सम्बन्ध में जो प्रेम होता है, वह इतना बढ़ जाता है कि पूरे विश्व में भी नहीं समा सकता और फिर मन की हाही के कारण यदि नाना प्रकार की विषय-वासनाओं के मंसूबे बाँधे जायँ तो भी विषयों का प्रत्यक्ष उपभोग करने के लिये द्रव्य चाहिये अथवा नहीं? यही कारण है कि विषयों का उपभोग करने के लिये जिस वैभव की आवश्यकता होती है, वह वैभव पाने के लिये आसुरी प्रवृत्ति के लोग संसार में नाना प्रकार के उपद्रव तथा उत्पात करने लगते हैं। वे किसी की जान ले लेते हैं, किसी का सर्वस्व लूट लेते हैं और किसी का अपकार करने के लिये तरह-तरह के यन्त्रों की रचना करते हैं। जैसे जंगल में शिकार-हेतु जाने के समय बहेलिये अपने साथ जाल, फन्दे, कुत्ते, बाज, बाँस की कमचियाँ आदि सब सामान ले जाते हैं, वैसे ही ये आसुरी प्रवृत्ति के लोग भी दूसरों को फँसाने के लिये अपने साथ कुछ इसी तरह का सामान लेकर निकलते हैं। जिस तरह बहेलिये अपना उदर-पोषण करने के लिये अनेक प्रकार के पापकर्म करते हैं, उसी तरह ये लोग दूसरों की हत्या करके द्रव्य प्राप्त करते हैं और इस प्रकार मिले हुए धन से इन्हें कितना अधिक सन्तोष होता है![1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (337-347)
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