ज्ञानेश्वरी पृ. 627

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग


दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
मा शुच: संपदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥5॥

इन दोनों में से जो प्रथम दैवी सम्पत्ति है, उसे मोक्षरूपी सूर्य का उदित प्रभात काल ही जानना चाहिये और द्वितीय जो आसुरी सम्पत्ति है, वह जीवों को आबद्ध करने वाली मोहरूपी लोहे की जंजीर ही है। सम्भव है, तुम यह सुनकर डर जाओ, पर हे धनंजय! भला दिन को रात से भय खाने की क्या आवश्यकता है? सिर्फ उन्हीं लोगों को यह आसुरी सम्पत्ति बाँध सकती है, जो लोग उपर्युक्त षट् दोषों को अपने-आप में आश्रय देते हैं। हे पाण्डव! जिस दैवी सम्पत्ति के गुणों का वर्णन मैंने अभी-अभी किया है, तुम तो उन गुणों के साक्षात् मूर्ति ही हो। अत: हे पार्थ! तुम इस दैवी सम्पत्ति के स्वामी होकर कैवल्य सुख को प्राप्त करो।[1]


द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु ॥6॥

दैवी और आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्य के व्यवहार का प्रवाह अनादि सिद्ध है, जैसे रात्रि के समय निशाचर लोग भ्रमण करते हैं और दिन के समय मनुष्य व्यवहार करते हैं, ठीक वैसे ही, हे किरीटी! ये दैवी और आसुरी सृष्टियाँ भी अपनी-अपनी रीति के अनुसार व्यवहार करती रहती हैं। उनमें से इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम ज्ञान का वर्णन और फिर दूसरे प्रकरणों में दैवी सम्पत्ति का वर्णन सविस्तार किया गया है। अब मैं आसुरी सृष्टि के बारे में तुम्हें बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। जैसे वाद्य के बिना कभी किसी को नाद नहीं सुनायी देता अथवा बिना पुष्प के मकरन्द नहीं मिलता, ठीक वैसे ही जब तक कोई मनुष्य इस आसुरी प्रकृति के वशवर्ती नहीं होता, तब तक यह सृष्टि अकेली कभी दृष्टिगत नहीं होती। परन्तु जिस समय कभी काई मनुष्य इसके जाल में फँस जाता है, उस समय वह भी उसके देह पर उसी तरह मनमाना शासन करती हुई दृष्टिगोचर होती है, जिस प्रकार अग्नि ईंधन को व्याप्त कर लेती है। ऐसी स्थिति में जैसे ईंख के बढ़ने से उसमें विद्यमान रस भी बढ़ता है, वैसे ही यह भी जान लेना चाहिये कि उस प्राणी के देह के बढ़ने से इस आसुरी सृष्टि की भी वृद्धि होती है। अब हे धनंजय! मैं तुमको उस प्राणी के लक्षण बतलाता हूँ, जिस पर इस आसुरी दोष-मण्डली का हमला होता है।[2]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (265-270)
  2. (271-280)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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