ज्ञानेश्वरी पृ. 624

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग

मानो एक दिन के लिये पराया अन्न पाकर ही वह दरिद्र भिक्षुक स्वयं को कृतकृत्य समझने लगता है अथवा जैसे मेघों की छाया मिलने पर कोई भाग्यहीन व्यक्ति अपना घर गिरा देता है, जैसे मृगजल की बाढ़ देखकर कोई मूढ़ व्यक्ति अपना जल का घट फोड़ डालता है, ठीक वैसे ही प्राप्त होने वाली सम्पत्ति के कारण मत्त हो जाना ही ‘दर्प’ कहलाता है। हे धनंजय! इसमें कहीं लेशमात्र भी अपवाद नही है।

अब मै तुमको यह बतलाता हूँ कि ‘अभिमान’ किसे कहते हैं। जगत् की श्रद्धा वेदों पर है और इस श्रद्धा में ईश्वर को परमपूज्य माना गया है। सारे जगत् को प्रकाशित करने वाला सूर्य ईश्वर ही है। सारे विश्व को सार्वभौम ऐश्वर्य की लालसा रहती है और उसको इस बात का बहुत ध्यान रहता है कि हमारी मृत्यु न आवे और यदि इन्हीं बातों के लिये सारा विश्व ईश्वरार्चन करने लगे तो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है? परन्तु ईश्वरार्चन एवं गुणानुवाद के शब्द कानों में पड़ते ही आसुरी व्यक्तियों के मन में मत्सर उत्पन्न होता है तथा उस मत्सर की बेल बढ़ने लगती है। आसुरी व्यक्ति कहने लगता है कि मैं तुम्हारे ईश्वर को निगल जाऊँगा, तुम्हारे वेदों को विष दे दूँगा और अपनी महत्ता से उनकी सत्ता का विनाश कर डालूँगा। दीपक की ज्योति पर दृष्टि पड़ते ही जैसे पतंगा व्याकुल हो जाता है, खद्योत को जैसे सूर्य नहीं भाता और टिट्टिभ ने (टिटहरी ने) जैसे सागर के साथ शत्रुता ठानी थी, वैसे ही आसुरी व्यक्ति अपने गर्व के चक्कर में पड़कर ईश्वर का नाम भी सहन नहीं कर सकता। सौतेलेपन का भाव वह अपने पिता के साथ भी रखता है, क्योंकि यह डर उसे सताता रहता है कि यह मेरी सम्पत्ति में हिस्सेदार होगा। इस प्रकार जो व्यक्ति अहंमन्यता से अति प्रसन्न हुआ, उन्मत्त तथा अभिमानी होता है, उसे नरक का चलता हुआ मार्ग ही समझना चाहिये।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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