श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
अथवा जैसे किसी रूपवान व्यक्ति के देह में कुष्ठ होने पर अथवा किसी सम्मानित व्यक्ति पर व्यर्थ ही लांछन लगने पर मारे लज्जा के उसके प्राण संकट में आ जाते हैं, वैसे ही इस साढ़े तीन हाथ के देह में आबद्ध होकर प्रेत-जैसा जीना और पुनः-पुनः जन्म धारण करना और मृत्यु़ का शिकार होना तथा गर्भाशय के विवर के साँचे में रक्त, मूत्र और रस का पुतला बन कर रहना उसके लिये अत्यन्त लज्जास्पद होता है। आशय यह कि शरीर के बन्धन में पड़कर नाम-रूपात्मक होने से बढ़कर लज्जाजनक और कोई बात उसके लिये हो ही नहीं सकती। ऐसे देह के प्रति जो घृणा उत्पन्न होती है, उसी को लज्जा कहते हैं। परन्तु यह लज्जा सिर्फ साधुओं को ही जान पड़ती है, निर्लज्जों को तो यह देह अत्यन्त प्रिय लगता है। अब मैं ‘अचापल्य’ गुण की व्याख्या करता हूँ। जैसे कठपुतलियों को नचाने वाली डोरी के टूट जाने से उनका हिलना-डुलना बन्द हो जाता है, वैसे ही योग का साधन करने से कर्मेन्द्रियों की गति बन्द हो जाती है अथवा जैसे सूर्यास्त होने पर उसकी रश्मियों का जाल भी छिप जाता है, वैसे ही मनोनिग्रह करने से इन्द्रियाँ भी पूर्णतया दब जाती हैं। इस प्रकार मन और प्राण का नियमन तथा योग का साधन करने से दसों इन्द्रियाँ अक्षम हो जाती हैं; इसी अवस्था को ‘अचापल्य’ नाम से पुकारते हैं।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (144-185)
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