श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
हे अर्जुन! चित्त का समत्व ही योग का सार है, जहाँ मन और बुद्धि का ऐक्य होता है। जब उस बुद्धियोग के विषय में सोचा जाता है, तब यह दृष्टिगोचर होने लगता है कि वह कर्मकाण्ड उससे बहुत ही छोटे दर्जे का है; परंतु (प्रारम्भ में) वही सकामकर्म जब किये जाते हैं, तब निष्काम कर्मयोग की प्राप्ति हो जाती है। क्योंकि ऐसे करते-करते सकाम से कर्तृत्वमद और फलास्वाद छोड़ने के बाद शेष जो कर्म रहता है, वही सहजयोग की स्थिति है। इसलिये बुद्धियोग ही मजबूत पाया (नींव) है। उसके ऊपर हे अर्जुन! तुम अपना मन स्थिर कर और फल की आशा का त्याग कर। जो लोग इस बुद्धि-योग में प्रवृत्त हो जाते हैं, वे ही इस संसार से पार उतरते हैं और फिर न तो उन्हें पाप बाँध सकते हैं और न पुण्य ही।[1]
ऐसे लोग यदि कर्म करते भी हैं तो भी वे कभी कर्मफल में आसक्त नहीं होते और यही कारण है कि वे जन्म और मरण के चक्कर में भी नहीं पड़ते। इसके बाद हे धनुर्धर! बुद्धि-योग के सिद्ध होते ही वे लोग सारे-के-सारे दुःखों से रहित होकर यह परम अविनाशी ब्रह्मानन्द से ओतप्रोत पद प्राप्त कर लेते हैं।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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