ज्ञानेश्वरी पृ. 59

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग


त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥45॥

निःसन्देह ये वेद सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों से व्याप्त हैं। इसीलिये समस्त उपनिषदों को सात्त्विक जानना चाहिये। हे धनुर्धर! उनके अलावा स्वर्गसुख का प्रलोभन देने वाले जो दूसरे यज्ञादि कर्म हैं, वे सब-के-सब रज और तम से भरे हुए हैं, इसलिये तुम अच्छी तरह से जान लो कि ये सब कर्म सुख-दुःखों को उत्पन्न करने वाले होते हैं। अतः तुम अपने अन्तःकरण को इन सब कर्मों के चक्कर में मत डालो। तुम इन तीनों गुणों का त्याग कर दो; ‘मैं-मेरे’ के फेर में मत पड़ो और शीघ्रातिशीघ्र अपने अन्तःकरण का सारा-का-सारा भार केवल आत्मसुख पर ही डाल दो।[1]


यावानर्थ उदपाने सर्वत: सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: ॥46॥

वेदों ने चाहे कितनी ही बातें क्यों न कहीं हों और विविध प्रकार के विधि-भेद क्यों न बतलाये हों, परन्तु उनमें से केवल वे ही बातें हमें स्वीकार करनी चाहिये जो हमारे लिये हितकर हों। जब सूर्य का उदय होता है, तब सभी रास्ते प्रकाशित हो उठते हैं। पर भला क्या हम उन सभी रास्तों पर चलते हैं? यदि सारी-की-सारी पृथ्वी जलमग्न हो जाय, तो भी हमें उसमें से केवल आवश्यकतानुसार ही जल ग्रहण करना चाहिये। इसी प्रकार ज्ञानिजन वेदार्थ का चिन्तन तो करते-ही-करते हैं, पर वे उसका वही सारतत्त्व ग्रहण करते हैं, जो उनके लिये अत्यावश्यक एवं शाश्वत है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (256-259)
  2. (260-263)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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