श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
निःसन्देह ये वेद सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों से व्याप्त हैं। इसीलिये समस्त उपनिषदों को सात्त्विक जानना चाहिये। हे धनुर्धर! उनके अलावा स्वर्गसुख का प्रलोभन देने वाले जो दूसरे यज्ञादि कर्म हैं, वे सब-के-सब रज और तम से भरे हुए हैं, इसलिये तुम अच्छी तरह से जान लो कि ये सब कर्म सुख-दुःखों को उत्पन्न करने वाले होते हैं। अतः तुम अपने अन्तःकरण को इन सब कर्मों के चक्कर में मत डालो। तुम इन तीनों गुणों का त्याग कर दो; ‘मैं-मेरे’ के फेर में मत पड़ो और शीघ्रातिशीघ्र अपने अन्तःकरण का सारा-का-सारा भार केवल आत्मसुख पर ही डाल दो।[1]
वेदों ने चाहे कितनी ही बातें क्यों न कहीं हों और विविध प्रकार के विधि-भेद क्यों न बतलाये हों, परन्तु उनमें से केवल वे ही बातें हमें स्वीकार करनी चाहिये जो हमारे लिये हितकर हों। जब सूर्य का उदय होता है, तब सभी रास्ते प्रकाशित हो उठते हैं। पर भला क्या हम उन सभी रास्तों पर चलते हैं? यदि सारी-की-सारी पृथ्वी जलमग्न हो जाय, तो भी हमें उसमें से केवल आवश्यकतानुसार ही जल ग्रहण करना चाहिये। इसी प्रकार ज्ञानिजन वेदार्थ का चिन्तन तो करते-ही-करते हैं, पर वे उसका वही सारतत्त्व ग्रहण करते हैं, जो उनके लिये अत्यावश्यक एवं शाश्वत है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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