ज्ञानेश्वरी पृ. 563

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग

जैसे प्रवहमान जल निरन्तर आगे की ओर बढ़ता रहता है, पर साथ ही उसका अनुगमन करने वाला जल शीघ्र ही आकर उसका स्थान ग्रहण कर लेता है, ठीक वैसी ही बात सदा इस वृक्ष के सम्बन्ध में भी होती रहती है; और इसीलिये लोग इस नाशवान् को भी अविनाशी मानते हैं। जितने क्षण में एक बार पलक झपकती है, उतने ही क्षण में समुद्र में करोड़ों लहरें उठती हैं और इसीलिये अज्ञानियों को लहरे नित्य अथवा अक्षय-सी जान पड़ती हैं। काक नामक पक्षी की आँखें तो दो होती हैं, पर पुतली एक ही होती है; परन्तु उस पुतली को वह काक पक्षी एक ही क्षण में दोनों आँखों में समानरूप से घुमाता रहता है और यही कारण है कि लोगों को यह भ्रम होता है कि काक पक्षी की दोनों पुतलियाँ होती हैं। जिस समय लट्टू तीव्र वेग से घूमता हुआ किसी एक ही जगह पर खड़ा होकर घूमने लगता है उस समय देखने वालों को यह भ्रम होता है कि वह जमीन पर सीधा खड़ा हुआ है और एकदम स्तब्ध है; पर इस भ्रम का कारण यही होता है कि वह लट्टू उस समय अत्यन्त तीव्र वेग से घूमता है। दूर क्यों जायँ, जिस समय घेरे में बनेठी खूब जोर से घुमायी जाती है, उस समय प्रकाश की सिर्फ एक चक्राकार रेखा ही दृष्टिगत होती है।

ठीक इसी प्रकार सहजतः इस बात का पता नहीं चलता कि इस संसार-वृक्ष की शाखाएँ कब टूटती हैं और कब नयी निकलती हैं; और इसीलिये मूढ़ व्यक्ति इसे अव्यय समझते हैं। परन्तु जिसकी समझ में इसका वेग आ जाता है, उसे इसकी नश्वरता का अच्छी तरह ज्ञान हो जाता है। ज्ञानीजन यह बात भली-भाँति जानते हैं कि एक ही निमेष में इसके करोड़ों बार स्थिति और लय के विकार उत्पन्न होते हैं। जिस व्यक्ति को यह बात अच्छी तरह समझ में आ जाती है कि इस संसार-वृक्ष का मूल अज्ञान के अलावा और कुछ भी नहीं है, इसका अस्तित्व मिथ्या है और यह वृक्ष क्षण भंगुर है; हे पाण्डुसुत! मेरी दृष्टि में वही सर्वज्ञज्ञानी है। वेदों के सिद्धान्तानुसार वही वन्द्य है। समस्त योग-साधन एक मात्र इसी प्रकार के ज्ञानी के लिये उपयोगी सिद्ध होता है। किंबहुना ज्ञान भी उसी के कारण जीवन धारण करता है। पर अब इस विषय की चर्चा बहुत हो चुकी। जो इस संसार-वृक्ष की अनित्यता का ज्ञान रखता है, उसका वर्णन भला कौन कर सकता है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (72-143)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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