ज्ञानेश्वरी पृ. 555

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग

यदि भोजन करने वाले को यह पता चल जाय कि उसे विषाक्त भोजन परोसा गया है, तो वह भोजन छोड़कर उठ जाता है। ठीक इसी प्रकार यह संसार अशाश्वत और नश्वर है, जब यह बात मन में अच्छी तरह समा जाती है, तब यदि कोई विरक्ति को अपने पास से दूर भी कर दे तो भी वह स्वतः पीछे हो लेती है।

अब इस पन्द्रहवें अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण इस संसार की अनित्यता कैसी है इसके सम्बन्ध में एक वृक्ष के रूपक के द्वारा बतलाते हैं। यदि जड़समेत उखड़ा हुआ वृक्ष उल्टा रख दिया जाय तो वह सूख जाता है, पर इस संसाररूपी वृक्ष के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। इस प्रकार एक रूपक के कौशल से ही भगवान् इस संसार का आवागमन बन्द कर रहे हैं। इस अध्याय का कथन इसी उद्देश्य से किया गया है कि संसार की निरर्थकता सिद्ध हो जाय और स्व-स्वरूपी ‘अहं ब्रह्मास्मि’ वाली अवस्था स्थायी तथा दृढ़ हो जाय। अब ग्रन्थ का यह गूढ़ रहस्य मैं बहुत ही मनोयोगपूर्वक स्पष्ट करना चाहता हूँ; तो भी आप लोग ध्यानपूर्वक सुनें। परमानन्द के समुद्र में ज्वार उत्पन्न करने वाले पूर्ण चन्द्र भगवान् श्रीकृष्ण द्वारिकाधीश कहने लगे- “हे पाण्डुकुँवर! जो विश्वभ्रम मेरे स्वरूप की प्राप्ति के मार्ग में बाधक होता है, उसे यह विश्व ही न समझ लेना चाहिये। तुम यही ध्यान में रखो कि यह संसार एक प्रचण्ड वृक्ष है, परन्तु सामान्य वृक्षों की भाँति इस वृक्ष की जड़ें नीचे और डालियाँ ऊपर नहीं हैं और इसीलिये यह बात सहसा किसी के समझ में नहीं आती कि यह भी कोई वृक्ष है। यदि किसी वृक्ष की जड़ में आग लग जाय अथवा कुल्हाड़ी से काटा जाय तो फिर चाहे उस वृक्ष का ऊपरी विस्तार कितना ही अधिक क्यों न हो, परन्तु वह जड़ से उखड़ जाने के कारण सहज में धराशायी हो जाता है। पर यह संसाररूपी वृक्ष इस प्रकार आसानी से ढहाया नही जा सकता।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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