ज्ञानेश्वरी पृ. 551

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-14
गुणत्रय विभाग योग


ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।27।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः।।14।।

हे पाण्डव! ‘ब्रह्म’ का अर्थ ‘मैं’ है तथा ऐसे समस्त शब्दों से मेरा ही अभिप्राय होता है। हे मर्मज्ञ! जैसे चन्द्रमण्डल और चन्द्रमा- दोनों पृथक्-पृथक् दो चीजें नहीं हैं, वैसे ही ‘मैं’ और ‘ब्रह्म’ इन दोनों में लेशमात्र का भी भेद नहीं है। जो चीज शाश्वत, अचल, स्पष्ट, धर्मस्वरूप, आनन्दमय, अपार और अद्वितीय है, किंबहुना सारी अभिलाषाओं का परित्याग कर विवेक जो पद प्राप्त करता है और ज्ञान की जो परम सीमा है, वह सब ‘मैं’ ही हूँ।”

भक्त वत्सल भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार की बातें पाण्डु नन्दन अर्जुन से कह रहे थे। यह सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा- “हे संजय! बिना पूछे तुम यह सब निरर्थक बातें क्यों कह रहे हो? इस समय जो चिन्ता मेरे मन को सता रही है, पहले वह तुम दूर करो। तुम पहले मेरे पुत्रों की विजय-वार्ता सुनाओ। यह सुनकर संजय ने मन-ही-मन कहा कि विजय-वार्ता को इस समय रहने दो। धृतराष्ट्र की इन सब बातों को सुनकर संजय का मन आश्चर्य से भर उठा। उसने अपने मन में कहा- “अहो, खेद है। इसके अन्तः करण में भगवान् के प्रति कितना द्वेष भरा हुआ है। फिर भी वे कृपालु भगवान् इस पर कृपा करें और यह विवेरूपी औषधि का सेवन करे, जिसमें इसका मोहरूपी महाव्याधि नष्ट हो जाय।” जिस समय संजय के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ, उस समय भगवान् और अर्जुन के संवाद की बातें स्मरण करते-करते उसके हृदय में आनन्द का उद्रेक हो आया। इसलिये अब भी बराबर बढ़ते हुए उत्साह से भगवान् का संवाद ही कहेगा। उस संवाद के शब्दों का भावार्थ मैं आप लोगों के चित्त में अंकित करने का यत्न करूँगा। हे श्रोतावृन्द! श्रीनिवृत्तिनाथ का दास यह ज्ञानदेव आप लोगों से विनम्र निवेदन करता है कि आप लोग मन लगाकर इसका श्रवण करें।[1]

Next.png

टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (404-415)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः