श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-14
गुणत्रय विभाग योग
हे पाण्डव! ‘ब्रह्म’ का अर्थ ‘मैं’ है तथा ऐसे समस्त शब्दों से मेरा ही अभिप्राय होता है। हे मर्मज्ञ! जैसे चन्द्रमण्डल और चन्द्रमा- दोनों पृथक्-पृथक् दो चीजें नहीं हैं, वैसे ही ‘मैं’ और ‘ब्रह्म’ इन दोनों में लेशमात्र का भी भेद नहीं है। जो चीज शाश्वत, अचल, स्पष्ट, धर्मस्वरूप, आनन्दमय, अपार और अद्वितीय है, किंबहुना सारी अभिलाषाओं का परित्याग कर विवेक जो पद प्राप्त करता है और ज्ञान की जो परम सीमा है, वह सब ‘मैं’ ही हूँ।” भक्त वत्सल भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार की बातें पाण्डु नन्दन अर्जुन से कह रहे थे। यह सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा- “हे संजय! बिना पूछे तुम यह सब निरर्थक बातें क्यों कह रहे हो? इस समय जो चिन्ता मेरे मन को सता रही है, पहले वह तुम दूर करो। तुम पहले मेरे पुत्रों की विजय-वार्ता सुनाओ। यह सुनकर संजय ने मन-ही-मन कहा कि विजय-वार्ता को इस समय रहने दो। धृतराष्ट्र की इन सब बातों को सुनकर संजय का मन आश्चर्य से भर उठा। उसने अपने मन में कहा- “अहो, खेद है। इसके अन्तः करण में भगवान् के प्रति कितना द्वेष भरा हुआ है। फिर भी वे कृपालु भगवान् इस पर कृपा करें और यह विवेरूपी औषधि का सेवन करे, जिसमें इसका मोहरूपी महाव्याधि नष्ट हो जाय।” जिस समय संजय के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ, उस समय भगवान् और अर्जुन के संवाद की बातें स्मरण करते-करते उसके हृदय में आनन्द का उद्रेक हो आया। इसलिये अब भी बराबर बढ़ते हुए उत्साह से भगवान् का संवाद ही कहेगा। उस संवाद के शब्दों का भावार्थ मैं आप लोगों के चित्त में अंकित करने का यत्न करूँगा। हे श्रोतावृन्द! श्रीनिवृत्तिनाथ का दास यह ज्ञानदेव आप लोगों से विनम्र निवेदन करता है कि आप लोग मन लगाकर इसका श्रवण करें।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (404-415)
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