श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-14
गुणत्रय विभाग योग
हे किरीटी! जैसे वस्त्र के अन्दर और बाहर सूत के अलावा और कुछ भी नहीं होता, ठीक वैसे ही ज्ञानी व्यक्ति भी यह देखता है कि यह चराचर जगत् आत्मतत्त्व के सिवा और कुछ भी नहीं है। जैसे परमात्मा अपने शत्रुओं को भी तथा भक्तों को भी एक ही प्रकार की परम गति देता है, वैसे ही ज्ञानी भी सुख-दुःख दोनों को एक समान समझता है। वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो यदि जीव इस देह में ठीक वैसे ही रहे, जैसे मछली जल में रहती है, तो उसे सुख-दुःख का सहज ही अनुभव होना चाहिये। पर ज्ञानी व्यक्ति सुख-दुःख का परित्याग कर चुका होता है और सदा आत्मस्वरूप में निमग्न रहता है। जब खेत में फसल तैयार हो जाती है, तब जैसे बाली में दाने भरकर बाहर निकलने लगते हैं अथवा जिस समय गंगा नदी अपनी प्रवाह का परित्याग कर समुद्र में समा जाती है, उस समय जैसे उसकी सारी चंचलता शान्त हो जाती है वैसे ही हे धनंजय! व्यक्ति जिस समय आत्मस्वरूप में विचरण करने लगता है, उस समय उसे देह के सुख-दुःख का भान ही नहीं होता और वे सब उसके लिये एक समान हो जाते हैं। आत्मस्वरूप में निमग्न व्यक्ति के लिये देह के सुख-दुःख, हानि-लाभ इत्यादि द्वन्द्व ठीक उसी प्रकार एक समान हो जाते हैं, जिस प्रकार किसी खम्भे के लिये रात-दिन दोनों एक समान होते हैं। गहरी नींद में सोये हुये व्यक्ति के लिये सर्प का स्पर्श भी ठीक वैसा ही होता है, जैसा उर्वशी-सरीखी किसी अप्सरा के अंग का स्पर्श। ठीक इसी प्रकार आत्मस्वरूप में निमग्न रहने वाले व्यक्ति के लिये दुःख-सुखादि द्वन्द्व भी समान ही होते हैं। इसीलिये ऐसे व्यक्ति की दृष्टि में स्वर्ण और गोमय (गोबर) अथवा रत्न और पाषाण में कोई भेद नहीं रह जाता। चाहे स्वर्ग-सुख स्वयं उसके घर आ पहुँचे और चाहे उस पर व्याघ्र आकर आक्रमण करे, पर उसकी ब्रह्मैक्य वाली स्थिति में जरा-सा भी अन्तर नहीं पड़ता। जैसे मरा हुआ जीव कभी जीवित नहीं होता अथवा भुना हुआ बीज कभी अंकुरित नहीं हो सकता, ठीक वैसे ही उसकी वृत्ति की समता भी कभी भंग नहीं होती। चाहे कोई उसे ‘ब्रह्मा’ कहकर उसकी स्तुति करे और चाहे उसे नीच शब्द से सम्बोधित कर उसकी निन्दा करे, पर वह राख के ढेर की भाँति न तो कभी जलता ही है और न कभी बुझता ही है। जैसे सूर्य के घर में न तो कभी अँधेरा ही रहता है और न कभी दीपक ही जलता है। ठीक वैसे ही ज्ञानी व्यक्ति के लिये न तो निन्दा का ही कुछ मतलब निकलता है और न स्तुति का ही।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (349-361)
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