श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-14
गुणत्रय विभाग योग
अत: हे पाण्डुसुत! मैं तो पिता हूँ और महद्ब्रह्म (मूल माया) माता है और यह भासमान जगत् हम लोगों का अपत्य यानी पुत्र है। परन्तु तुम इस जगत् में नाना प्रकार के शरीर देखकर अपने चित्त में भेदभाव को स्थान मत दो, क्योंकि मन और बुद्धि इत्यादि सब एक रूप ही हैं। क्या एक ही देह में अलग-अलग अवयव नहीं हुआ करते? इसी प्रकार अनेक रूपों में भासमान होने वाला यह विश्व मूलतः एक ही है। जैसे एक ही बीज से वृक्ष की छोटी-बड़ी अनेक टहनियाँ उत्पन्न होती हैं अथवा इस प्रकार के सम्बन्ध के कारण मिट्टी से घर नामक बालक उत्पन्न होता है अथवा कपास के सूत के उदर से वस्त्र नामक पोता (नाती) जन्म लेता है अथवा जिस सम्बन्ध के द्वारा सागर को लहरों के रूप में संतति उत्पन्न होती है, इस चराचर जगत् के साथ मेरा भी उसी प्रकार का सम्बन्ध है। इसीलिये जैसे अग्नि और ज्योति- ये दोनों केवल अग्नि ही हैं, वैसे ही यह समस्त विश्व मैं ही हूँ; सब सम्बन्ध मिथ्या है। यदि यह कहा जाय कि जगत् की उत्पत्ति होते ही मेरा स्वरूप मिट जाता है, तो फिर जगत् को कौन प्रकाशित करता है? प्रकाशित होने के कारण क्या स्वयं माणिक्य का लोप हो जाता है? स्वर्ण का अलंकार बनता है तो क्या उसका स्वर्णत्व विनष्ट हो जाता है? अथवा कमल विकसित होता है तो क्या उसका कमलत्व समाप्त हो जाता है? |
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