ज्ञानेश्वरी पृ. 502

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग


उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।।22।।

जिस प्रकार जूही की बेल को आश्रय देने वाला खम्भा बिल्कुल सीधा खड़ा रहता है, उसी प्रकार यह पुरुष भी प्रकृति की माया में एकदम सीधा खड़ा रहता है। प्रकृति और पुरुष में आकाश और पाताल का अन्तर है। प्रकृतिरूपी सरिता के तट पर पुरुष मेरुगिरि की भाँति रहता है। प्रकृति की उत्पत्ति और विनाश होता रहता है, पर पुरुष शाश्वत होता है और यही कारण है कि वह ब्रह्मदेव से लेकर कीटपर्यन्त सभी का शासक होता है। इसी पुरुष से प्रकृति को भी जीवन की प्राप्ति होती है और इसी की सामर्थ्य से वह जगत् की उत्पत्ति करती है और वही प्रकृति का भर्ता है। हे किरीटी! काल के अखण्ड प्रवाह में प्रकृति जिन-जिन चीजों की सृष्टि करती रहती है, वे सब-के-सब कल्प के अन्त में इसी पुरुष के पेट में समा जाते हैं। यह महद्ब्रह्म उस प्रकृति का स्वामी है और इसी ब्रह्माण्ड के समस्त सूत्र इसी महद्ब्रह्म के अधीन रहते हैं। इसकी व्यापकता इतनी असीम है कि वह इन सारे प्रपंचों का माप कर सकता है। इस देह में निवास करने वाली जिस चीज को लोग परमात्मा के नाम से पुकारते हैं, वह यही पुरुष है। हे पाण्डुसुत! लोग जो यह कहा करते हैं कि इस प्रकृति से परे एक और चीज है, वह चीज वास्तव में यही पुरुष है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (1021-1028)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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