ज्ञानेश्वरी पृ. 493

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग


अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।16।।

उसी प्रकार जो सभी जीवों में एक रूप से विद्यमान रहता है, हे सुविज्ञ! जो इस विश्वरूपी कार्य का मूल कारण है और ये नामरूपात्मक जीवमात्र जिससे उसी प्रकार उत्पन्न हुए हैं, जिस प्रकार समुद्र से लहरें उत्पन्न होती हैं, उन सबका वह ब्रह्म उसी प्रकार आधार है, जिस प्रकार उन लहरों का आधार समुद्र होता है। जैसे बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था में शरीर एक ही रहता है, वैसे ही जीवमात्र के उत्पत्ति, स्थिति और संहार- इन तीनों ही अवस्थाओं में वह अभिन्न रूप से रहता है। जैसे प्रातः काल, मध्याह्न काल और सायं काल इत्यादि दिनमान के क्रमशः चलते रहने पर भी आकाश में कोई परिवर्तन नहीं होता, वह ज्यों-का-त्यों बना रहता है, वैसे ही ब्रह्म में भी कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। हे प्रियोत्तम! सृष्टि की उत्पत्ति के समय जिसका नाम ब्रह्म पड़ा था, सृष्टि की स्थिति के समय जिसे विष्णु कहते हैं और इसका लोप होने के समय जिसे रुद्र नाम से सम्बोधित करते हैं और इन तीनों गुणों के लुप्त हो जाने पर जो शून्य के रूप में अवशिष्ट रह जाता है तथा जो गगन का शून्यत्व विनष्ट करके तीनों गुणों (सत्त्व, रज, तम) का लोप करके शून्य रूप में शेष रह जाता है, वही श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित महाशून्य है।[1]

Next.png

टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (919-925)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः