श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
उसी प्रकार जो सभी जीवों में एक रूप से विद्यमान रहता है, हे सुविज्ञ! जो इस विश्वरूपी कार्य का मूल कारण है और ये नामरूपात्मक जीवमात्र जिससे उसी प्रकार उत्पन्न हुए हैं, जिस प्रकार समुद्र से लहरें उत्पन्न होती हैं, उन सबका वह ब्रह्म उसी प्रकार आधार है, जिस प्रकार उन लहरों का आधार समुद्र होता है। जैसे बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था में शरीर एक ही रहता है, वैसे ही जीवमात्र के उत्पत्ति, स्थिति और संहार- इन तीनों ही अवस्थाओं में वह अभिन्न रूप से रहता है। जैसे प्रातः काल, मध्याह्न काल और सायं काल इत्यादि दिनमान के क्रमशः चलते रहने पर भी आकाश में कोई परिवर्तन नहीं होता, वह ज्यों-का-त्यों बना रहता है, वैसे ही ब्रह्म में भी कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। हे प्रियोत्तम! सृष्टि की उत्पत्ति के समय जिसका नाम ब्रह्म पड़ा था, सृष्टि की स्थिति के समय जिसे विष्णु कहते हैं और इसका लोप होने के समय जिसे रुद्र नाम से सम्बोधित करते हैं और इन तीनों गुणों के लुप्त हो जाने पर जो शून्य के रूप में अवशिष्ट रह जाता है तथा जो गगन का शून्यत्व विनष्ट करके तीनों गुणों (सत्त्व, रज, तम) का लोप करके शून्य रूप में शेष रह जाता है, वही श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित महाशून्य है।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (919-925)
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