श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
अथवा जिसके सिर को दरवाजे की ड्योढ़ी पर ही दबोच दिया गया हो, भला उसे घर की बातें कैसे ज्ञात हो सकती हैं? इसी प्रकार हे धनंजय! जिसकी पहचान अध्यात्म ज्ञान से जरा-सी भी न हो, उसके लिये सत्यज्ञान पाने की गुंजाइश ही कहाँ रह जाती है, अत: हे पार्थ! अब तुम्हें यह बात और भी स्पष्ट रूप से बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि इस प्रकार के व्यक्ति को वास्तविक ज्ञान का कुछ भी तत्त्व ज्ञात नहीं होता। जैसे गर्भिणी स्त्री को अन्न देने का फल यही होता है कि उसका गर्भस्थ शिशु वृद्धि को प्राप्त होता है, वैसे ही उपर्युक्त ज्ञान पदों में ही अज्ञान पद का भी विवेचन अथवा अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे यदि किसी नेत्रहीन को निमन्त्रित किया जाय तो वह अपने संग किसी नेत्रवान व्यक्ति को लेकर आता है, वैसे ही जिस समय अज्ञान के लक्षण बतलाये जाते हैं, उस समय उनके साथ ही ज्ञान के लक्षण भी स्वतः स्पष्ट होने लगते हैं। यही कारण है कि प्राकृत विषय में अमानित्व इत्यादि ज्ञान लक्षणों के ठीक विपरीत ही अज्ञान के लक्षणों का भी विवेचन किया गया है। उपर्युक्त अठारह लक्षण जो ज्ञान के सम्बन्ध में बतलाये गये हैं, यदि सब-के-सब उलट दिये जायँ तो वे अपने-आप अज्ञान के लक्षण हो जाते हैं।” श्रीमुकुन्द ने इसी अध्याय के ग्यारहवें श्लोक के चतुर्थ चरण में यह बतलाया था कि यदि ज्ञान के लक्षणों को उलट दिया जाय तो वे अपने-आप अज्ञान के लक्षण हो जाते हैं। यही कारण है कि मैंने इस नियम का अनुकरण करके इस विषय का विवेचन किया है। मूल में इस नियम का अनुकरण नहीं किया गया था; पर फिर भी जल मिलाकर दूध बढ़ाने वाले सिद्धान्त के अनुसार अपनी तरफ से व्यर्थ की बातें बढ़ाकर मैं विषय का विस्तार न करता। मैंने तो मूल श्लोकों के शब्दों की मर्यादा का उल्लंघन न कर मूल में ध्वनित किये हुए अर्थ का ही विवेचन करने का प्रयत्न किया है। तब श्रोताओं ने कहा- “अब बहुत हो चुका, हे कवि पोषक! तुम्हें व्यर्थ ही यह भय क्यों सता रहा है कि तुम्हारे इस विवरण-विस्तार के कारण लोग उकता गये हैं? भगवान् श्रीकृष्ण की तो तुम्हें यह आज्ञा प्राप्त है कि गीता में मैंने जो अर्थ गर्भित कर रखे हैं, उन्हें तुम स्पष्ट करके लोगों को बतला दो। तुम तो श्रीकृष्ण का वही मनोरथ आज पूर्ण कर रहे हो। |
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